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________________ करने का अवसर मिल सकता है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी बोधिलाभ के अनन्तर लोगों को उपदेश, दीक्षा आदि देने के लिये उद्यत नहीं हए। उन्होंने कहा : "कठोर साधना एवं कप्ट सहन के फलस्वरूप मैने जो धर्म अधिगत किया है, उसे राग-द्वेष में फंसे हुए लोग समझ नहीं पायेंगे। क्योंकि वह धर्मतत्त्व लोकप्रवाह से विपरीत दिशा में चलने वाला, अति गम्भीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं दुद्देश्य है । राग के रंग में रंगे तथा प्रज्ञानान्धकार से आच्छन्न मनुष्य उसे नहीं देख पायेंगे।'' सुरलोक से समागत ब्रह्म सुहम्मपति देव ने पुनः विशिष्ट अनुनय-विनय के स्वर में प्रार्थना की- "भगवन् ! देवताओं एवं मनुष्यों के कल्याण के लिये धर्म-देशना दीजिये।" "तब भगवान् बुद्ध ने पहले-पहल ५ मनुष्यों को धर्म में दीक्षित किया और वे पंचवग्गिय कहलाये।"२ बौद्ध धर्म ग्रन्थों का इस प्रकार का उल्लेख तो विचार करने पर सयौक्तिक और बुद्धिगम्य प्रतीत हो सकता है किन्तु केवलज्ञान की उपलब्धि के तत्काल पश्चात् समवसरण की गन्ध कुटी में प्रथम देशनार्थ सर्वज्ञप्रभू ६६ मिनट नहीं ६६ घन्टे नहीं निरन्तर ६६ दिन तक मौन विराजे रहें और ससुरासुर देवेन्द्र, नर, नरेन्द्र इतनी लम्बी अवधि तक निरन्तर निष्क्रिय बैठे रहें, यह बात सहज ही किसी के गले नहीं उतर सकती।। धवलाकार के समकालीन पुन्नाट संघीय प्राचार्य जिनसेन ने धवला से लगभग ३० वर्ष पूर्व रचित अपने ग्रन्थ हरिवंश पुराण में इस उलझन भरी गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करते हुए लिखा है : "चार ज्ञानधारी महावीर ने (छप्रस्थावस्था में) १२ वर्ष पर्यन्त १२ प्रकार का तप किया और विहारक्रम से ऋकूला नदी के तट पर अवस्थित जम्भिक गांव के समीप पहुंचे । वहां वैशाख शुक्ला दशमी के दिन दो दिवस के उपवास का नियम, कर वे सालवृक्ष के समीप एक शिला पर आतापन योग में प्रारूढ़ हुए। उसी समय जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में स्थित था, तब शुक्लध्यानधारी प्रभु महावीर ने चार घाति-कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। समस्त सुरासुरेन्द्रों ने तत्काल वहां उपस्थित हो प्रभु के ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया। तदनन्तर छयासठ दिनों तक मौनावस्था में विहार करते हुए भगवान् महावीर राजगृह नगर के विपुलाचल पर आरूढ़ हुए।४ देवों ने वहां भव्य 'महावग्ग, १, ५.७ " महावग्म, १. ५.१. हरिवंश पुराण, सर्ग २, श्लोक ५६ - ५६ ४ केबलक प्रभावेण, सहसा चलितासनाः । मागत्य महिमां चक्रुस्तस्य सर्वे सुरासुराः ॥६०।। षट्षष्टि दिवसान भूयो, मौनेन विहरन् विभुः । भाजगाम जगत्स्थातं, जिनो राजगृहं पुरम् ।।६१।। मारोह गिरि तत्र, विपुलं विपुलश्रियम् ।।६२॥ [हरिवंश पुगग. सर्ग २, पृ १७) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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