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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जीव प्रत्यक्ष-सिद्ध है स्वतः सिद्ध है। जो प्रत्यक्षतः सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिये अन्य प्रमाण की अावश्यकता नहीं। जिस प्रकार अनुभूति, इच्छा, संशय, हर्ष, विषाद आदि भाव अमर्त-अरूपी होने के कारण बाह्य चक्षुषों से दृष्टिगोचर नहीं होते उसी प्रकार जीव भी अमूर्त-अरूपी होने के कारण चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता। गौतम ! प्रत्येक व्यक्ति द्वारा वर्तमान, भूत और भविष्य के अपने कार्यकलापों के सम्बन्ध में इस प्रकार की अनुभूति की जाती है कि “मैं सुन रहा हूँ", "मैंने सुना था", "मैं सुनंगा"। इस प्रकार की अनुभूतियों में "मैं" की प्रतिध्वनि से प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीव का प्रत्यक्षानुभव होता है।" भगवान महावीर प्राणिमात्र के मनोगत भावों को जानने वाले थे अतः गौतम के मन में जो भी शंका उठी, गौतम द्वारा उस शंका के प्रकट किये जाने से पहले ही भगवान ने उसे गौतम के समक्ष रख कर उसका तत्काल समाधान कर दिया और इस प्रकार गौतम इन्द्रभूति को अपनी शंकानों के समाधान के लिये बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। भगवान् ने फरमाया- “गौतम ! प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई-'मैं प्रसन्न हूं' अथवा 'मैं पीडित हं' इत्यादि अनभूतियों में प्रयुक्त- 'मैं' पद से आत्मा का ही बोध होता है । 'मैं नहीं हैं' इस प्रकार की अनुभूति अथवा अभिव्यक्ति कोई व्यक्ति नहीं करता।" - आगम प्रमाण के सम्बन्ध में गौतम के अन्तर्मन में उठी शंका का तत्काल समाधान करते हुए प्रभु ने कहा - "गौतम ! तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न होने का मूल कारण यह है कि तुम वेद की ऋचाओं के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाये हो । एक ओर -- । 'न ह वै सशरीरस्यसतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसंत प्रियाप्रिये न स्पृशतः' तथा ‘स्वर्गकामो यजेत' १ (क) अत्थि रिणरुत्तं जीवो, इमेहिं सो लक्खणेहिं मुणियब्वो। चित्तं-चेयग-सण्णा. विण्णाणादीहिं चिधेहि ।।४२०।। चिउपन्नमहापुरिस चरियं, पृ० ३०१] (ग्व) गोयम पच्चक्षुच्चिय, जीवो जं संसयाइ विन्नाणं । पच्चश्वं च न सझं, जह · सुह-दुक्खा सदेहम्मि ।।१५५४।। [विशेषावश्यक भाष्य २ नागादग्रो न देहस्स, मुत्तिमत्ताइयो घडस्सेव । तम्हा नागाइ गुगगा जस्म, स देहाइग्रो जीवो ॥१५६२।। [विशेषावश्यक भाप्य] 3 छान्दोग्योपनिषद्, ४४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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