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________________ ७७९ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवति क्षमाश्रमण महान् विदुषी प्रार्या यक्षा के सान्निध्य में रह कर एकदशांगी का तलस्पर्शी शान प्राप्त किया था। प्रार्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती जैसे प्राचारनिष्ठ प्रतिभाशाली एवं महान् प्रभावक श्रमण-श्रेष्ठों में प्रारम्भ से ही उच्चकोटि के संस्कार ढालने वाली महासती यक्षा कैसी विदुषी, कितनी तेजस्विनी, माचारनिष्ठा तथा संस्कारनिर्माण में कितनी कुशल होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रार्या यक्षा के विदेह-गमन का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें यह बताया गया है कि पार्य स्थूलभद्र और तदनन्तर यक्षा प्रादि सातों बहिनों के प्रवजित हो जाने के कुछ समय पश्चात् स्थूलभद्र के कनिष्ठ सहोदर श्रीयक ने भी श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रीयक मुनि अत्यन्त सुकोमल प्रकृति के थे। वे भूख-प्यास को सहन करने में इतने अधिक प्रक्षम थे कि एक उपवास की तपस्या करना भी उनके लिये बड़ा दुष्कर कार्य था। साध्वी यक्षा ने अपने भ्राता मुनि को तपस्या करने के लिये प्रोत्साहित करते हुए एक दिन कहा-"मूनिवर! तपस्या की अग्नि से ही कर्मसमूह को ध्वस्त किया जा सकता है। यदि उपवास करना कठिन प्रतीत होता है तो आज एकाशन ही कर लीजिये। धीरे-धीरे इस प्रकार तपस्या करने का अभ्यास हो जायगा।" - अपनी बड़ी बहिन की प्रेरणा से मुनि श्रीयक ने एकाशन व्रत करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मध्याह्न तक का समय बड़े प्रानन्द के साथ व्यतीत हो गया। श्रीयक को भूख प्यास ने अधिक नहीं सताया। मध्याह्नोत्तर काल में साध्वी यक्षा ने श्रीयक मुनि के पास जा कर जब यह सुना कि उन्हें उस समय तक तो भूख प्यास विशेष असह्य नहीं हो रही है, तो उन्होंने श्रीयक मुनि को उपवास कर लेने का परामर्श दिया। उत्साहवशात् श्रीयक मुनि ने उपवास का संकल्प कर लिया। रात्रि में भूख एवं प्यास ने उग्र रूप धारण कर लिया और उपोसित श्रीयक मुनि का संभवतः कड़ी प्यास के कारण प्राणान्त हो गया। प्रातःकाल होते ही मुनि श्रीयक की मृत्यु के समाचार सुन कर साध्वी यक्षा ने श्रीयक मुनि की मृत्यु में अपने पापको कारण मान कर बड़े दुःख, पश्चात्ताप और आत्मग्लानि का अनुभव किया। संघ ने बार-बार उन्हें समझाया कि वे निर्दोष हैं पर साध्वी यक्षा ने कई दिनों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। संघ द्वारा बार-बार विनती किये जाने पर साध्वी यक्षा ने कहा "यदि कोई प्रतिशयज्ञानी (केवलज्ञानी) यह कह दें कि यक्षा निर्दोष है, तभी मैं अन्न-जल ग्रहण करूंगी, अन्यथा नहीं।" अन्ततोगत्वा शासनाधिष्ठात्री देवी की संघ ने पाराधना की और देवी सहायता से प्रार्या यक्षा महाविदेह क्षेत्र में श्रीमंदरस्वामी के समवशरण में पहुँची। घट-घट के अन्तर्यामी तीर्थंकर श्रीमंदरस्वामी ने श्रीमुख से प्रार्या यक्षा को निर्दोष बताया और ४ अध्ययन प्रदान किये । विदेह क्षेत्र में श्रीमंदर प्रभु के दर्शनों से अपना जीवन सफल तथा उनकी वाणी से अपने पापको निर्दोष मान कर मार्या यक्षा देवी सहायता से पुनः लौट पाई। उन्होंने वे चारों प्रध्याय संघ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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