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________________ ५७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य वचस्वामी साध्वियों की सेवा में पहुँच कर उसने श्रमणी-धर्म की दीक्षा स्वीकार की। उस समय तक बालक वज्र ३ वर्ष के हो चुके थे। ज्यों ही वालक वज्र पाठ वर्ष की आयु का हुअा त्यों ही प्रार्य सिंहगिरि ने साध्वियों के सान्निध्य से हटाकर उसे श्रमण-दीक्षा प्रदान की और अपने पास रखना प्रारम्भ कर दिया। उस समय तक बालक वज्र ने साध्वियों के मुख से सुन-सुन कर एकादश अङ्ग प्रायः कण्ठस्थ कर लिए थे। अपने शिष्यपरिवार सहित अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए कालान्तर में आर्य सिंहगिरि एक दिन एक पर्वत के पास पहुँचे। मुनि वज्र की परीक्षा लेने के अभिप्राय से वहां उनके पूर्वभव के मित्र जूंभक देवों ने अपनी वैक्रियशक्ति से घोर गर्जन करती हुई घनघोर मेघघटा की रचना की। वर्षा के आसार देखकर प्रार्य सिंहगिरि ने अपने शिष्यों सहित उस पर्वत की एक गुफा में प्रवेश किया। उनके गुफा में पहुंचते-पहुंचते बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक के साथ मुसलधार वर्षा होने लगी। थोड़ी ही देर में चारों पोर जलबिम्ब ही जलबिम्व दृष्टिगोचर होने लगा । वर्षा बन्द न होने के लक्षण देखकर सब साधुओं ने उपवास का व्रत ग्रहण कर लिया और परम सन्तोष के साथ वे आत्मचिंतन में निरत हो गये। सायंकाल होते-होते वर्षा बन्द हुई अतः आर्य सिंहगिरि ने अपने शिष्यों सहित रात्रि उसी गिरिकन्दरा में व्यतीत की। दूसरे दिन मध्याह्नवेला में आर्य वज्र मुनि अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षार्थ वसति की ओर प्रस्थित हुए। थोड़ी दूर जाने पर मुनि वज्र ने एक छोटी सी सुन्दर वसति देखी और उन्होंने भिक्षार्थ एक घर में प्रवेश किया। उस गृह में अत्यन्त सौम्य प्राकृति के कतिपय भद्र पुरुषों ने मुनि वज्र को नमस्कार किया और वे उन्हें कुष्माण्डपाक भिक्षा में देने हेतु समुद्यत हुए। लघुवय होते हुए भी विचक्षण वज्रमुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार करते हुए मन ही मन सोचा कि द्रव्य-कूष्माण्डपाक, क्षेत्र-मालव प्रदेश, काल-ग्रीष्मकाल और भाव की दृष्टि से अम्लान-कुसुममालाधारी दिव्य दानकर्ता, जिनके पैर हलनचलन ग्रादि क्रिया करते समय पृथ्वीतल का स्पर्श तक नहीं करते- ऐसी दशा में निश्चितरूपेण ये लोग मनुष्य नहीं अपितु देव होने चाहिये। देवताओं द्वारा दिया गया दान साधु के लिए किसी भी दशा में कल्पनीय नहीं माना गया है। , ताहे अटुवासयो संजतिपडिस्सतानो निकालियो ताहे उज्जेरिण गतो। [आवश्यक चूरिण, प्रथम भाग, पृ० ३६२] (क) प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने "प्रभावक चरित्र" में लिखा है कि प्रायसिंहगिरि ने वज्रस्वामी को जब वे तीन वर्ष की आयु के थे, उम ही ममय दीक्षित कर लिया। यथा : त्रिवार्षिकोऽपि न स्तन्यं, पपो वज्रो व्रतेच्छया ।। दीक्षित्वा गुरुभिस्तेन तत्र मुक्तः समातृक: ।।१२।। अथाष्टदापिकं वज्र,कृष्ट्वा साध्वीप्रतिश्रयात् । श्री सिंह गिरयोऽन्यत्र, विजह सपरिच्छदाः ।।३।। [प्रभावक चरित्र, पृ० ५] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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