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________________ श्रद्धेयता हो । श्राचार्य में प्रदेयवचनता की विशेषता होनी चाहिए, जिससे श्रोतागण उनके वचनों की ओर सहजतया ग्राकृष्ट हों, लाभान्वित हों । २. मधुरवचनता - हितकरता और उपादेयता के साथ यदि वचन में मधुरता भी हो तो वह सोने में सुगन्ध जैसी बात है । लौकिक जन सहज ही माधुर्य और प्रेयस् की ओर अधिक ग्राकृष्ट रहते हैं । यदि उत्तम बात भी मधुर या कठोर वचन द्वारा प्रकट की जाए तो सुनने वाला उससे भिजकता है । महान् कवि श्रोर नीतिविद् भारवि ने इसीलिए कहा था हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः अर्थात् ऐसा वचन दुर्लभ है, जो हितकर होने के साथ साथ मनोहर भी हो । प्राचार्य में ऐसा होना सर्वथा वांछनीय है । इससे उनके प्रादेय वचनों की ग्राह्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है । ३. प्रनिधितवचनता - जो वचन राग, द्वेष या किसी पक्ष विशेष के प्राग्रह पर टिका होता है, वह निश्रित वचन कहा जाता है। वैसा वचन न वक्ता के अपने हित के लिए है और न उससे श्रोतृगरण को ही कुछ लाभ हो सकता है। प्राचार्य निश्रितवचन प्रयोक्ता नहीं होते । वे प्रनिश्रित वचन बोलते हैं, जिससे सर्वसाधारण का हित सता है, जिसे सब प्रादरपूर्वक अंगीकार करते हैं । ४. असंदिग्धवचनता - तथ्य का साधक और तथ्य का बाधक जो न हो, वैसा ज्ञान सन्देह कहलाता है। जो वंचन उससे लिप्त है, वह सन्दिग्ध है। प्राचार्य सन्दिग्ध वचन का प्रयोग नहीं करते । वैसा करने से उपासकों की श्रद्धा घटती है। उनका किसी भी प्रकार से हित नहीं सधता । क्योंकि वचन के सन्देहयुक्त होने के काररण वे उधर नाकृष्ट नहीं होते फलतः आचार्य चाहे व्यक्त न सही, अव्यक्त रूप में उपेक्षणीय हो जाते हैं । वाचना-सम्पदा वाचना-सम्पदा के निम्नांकित चार' भेद हैं १. विदित्वोद्देशिता २. विदित्वा वाचिता १. विदित्वोद्दे शिता - पहले उल्लेख किया गया है किं प्राचार्य अन्तेवासियों को श्रुत की अर्थ वाचना देते हैं । वाचना-सम्पदा में इसी सन्दर्भ में कतिपय महत्वपूर्ण विशेषतायें बतलाई गई हैं। उनमें पहली विदित्वोद्देशिता है । इसका सम्बन्ध अध्येता या वाचना लेने वाले अन्तेवासी से है । अध्येता का विकास किस कोटि का है, उसकी ग्राहक शक्ति कैसी है, किस आगम में उसका प्रवेश सम्भव है. इत्यादि पहलुओं को दृष्टि में रखकर प्राचार्य श्रन्तेवासी को पढ़ाने का निश्चय करते हैं । इसका आशय यह है कि अध्येता की क्षमता को ग्रांकने की प्राचार्य में विशेष सुभ-बूझ होती है। दशाथ तरकस्य सत्र अध्ययन ४ मंत्र ७ c. ३. परिनिर्वाप्य वाचिता तथा ४. ग्रर्थनिर्यापिकता Jain Education International ( ६० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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