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________________ छोटे पर ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रन्थ 'दर्शनसार' में उल्लेख किया है। उसी गाथा को मूलाधार के रूप में प्रथम स्थान देते हए देवसेन' (दर्शनसार के रचयिता देवसेन से भित्र) ने अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' में श्वेत पट संघ की उत्पत्ति का जो विवरण दिया है उससे निम्नलिखित बातें स्पष्टतः प्रकट होती हैं : । १. निमित्त ज्ञानी भद्रबाहु नामक प्राचार्य विक्रम सं० १२४ तदनुसार वीर निर्वाण सम्वत् ५६४ में उज्जयिनी में ठहरे हुए थे। २. उन्होंने अपने निमित्तज्ञान के बल पर समस्त श्रमण संघों को सूचित किया कि अवन्ती सहित समस्त उत्तरापथ में भीषण दुष्काल पड़ने वाला है जो १२ वर्ष तक चलेगा। अतः सभी श्रमण उत्तरापथ से विहार कर सुभिक्षा वाले क्षेत्रों की ओर चले जायं। ३. सभी प्राचार्य अपने-अपने संघ सहित उत्तरापथ से विहार कर अन्यत्र चले गये । शान्ति नामक प्राचार्य सौराष्ट्र प्रदेश के वल्लभी नगर में पहुँचे पर वहां भी बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ गया। दुष्कालजन्य अपरिहार्य परिस्थितियों में शान्त्याचार्य के संघ के श्रमणों ने दण्ड, कम्बल, पात्र, श्वेतवस्त्रादि धारण कर श्रमणों के लिये वजित शिथिलाचार की शरण ली। ४. शेष श्रमणों के संघ जहां जहां गये वहां संभवतः सुभिक्ष रहा और उन्होंने अपने विशुद्ध एवं कठोर श्रमणाचार में किसी प्रकार का शैथिल्य नहीं आने दिया। ५. सुभिक्ष होने पर शान्त्याचार्य ने अपने शिष्य-समूह को सत्परामर्श दिया कि वे दण्ड, वस्त्र, पात्रादि का परित्याग कर प्रायश्चित लें और पूर्ववत् कठोर श्रमणाचार में प्रवृत्त हो जायं । शान्त्याचार्य के कटुसत्य आदेश से क्रुद्ध हो उनके जिनचन्द नामक प्रमुख शिष्य ने उनके कपाल पर दण्ड प्रहार किया जिससे उनका प्राणान्त हो गया। ६. शान्त्याचार्य की हत्या कर जिनचन्द्र उनके संघ का प्राचार्य बन गया और उसने स्वेच्छानुसार अपने प्राचरण के अनुकूल नवीन शास्त्रों को रचना की। ७. दिगम्बर मान्यतानुसार वीर नि० सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए श्रुतकेवली भद्रबाहु का न कहीं इसमें उल्लेख है और न विशाखाचार्य, रामिल्ल, स्थूलवड, स्थूलाचार्य अथवा सम्राट चन्द्रगुप्त का ही। यह पूरा विवरण वस्तुतः वि० ' 'भाव संग्रह' और 'सुलोयणा चरिउ' के रचनाकार देवसेन ने अपने पापको निबडिदेव का प्रशिष्य और विमलसेन (प्रपरनाम मलधारिदेव) का शिष्य बताया है। इन्होंने 'सुलोषणा चरिउ' में कवि-पुष्पदंत का, जिनका समय वि० सं० १०२६ अर्थात् दर्शनसार के रचयिता देवसेन से ३६ वर्ष बाद का है । इन शब्दों में स्मरण किया हैं :बउमुह मयंभु-पमुहि रक्षिय दुहिय पुष्फयंतेण । सुरसइ सुरहीए पयं सिरि देवसेणेण । (६१ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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