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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग (भद्रबाहु दि० परं. कल्प के विधान की कल्पना कर निर्ग्रन्थ (नग्न) परम्परा से विपरीत स्थविरकल्प परम्परा को प्रचलित किया।'' इस प्रकार प्राचार्य देवसेन ने अपने ग्रन्थ 'भावसंग्रह' में वीर निर्वाग्ग संवत् ६०६ में हुए प्राचार्य भद्रबाह (निमित्तज्ञ) के समय में जिस घटना के घटित होने का उल्लेख किया है उसे प्राचार्य हरिषेण ने अपने ग्रन्थ 'वृहत् कथाकोश' में श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया है, जो कि दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० १६३ में और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वी०नि० सं० १७० में स्वर्ग सिधारे। प्राचार्य हरिषेण ने रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य - इन तीनों के सम्बन्ध में लिखा है कि उन तीनों ने पुनः निर्ग्रन्थ प्राचार स्वीकार कर लिया। पर भट्टारक रत्ननन्दी इनसे बहुत आगे बढ़ गये ..... ___ इस प्रकार विमलसेनगरिण के शिष्य देवसेन२ (जो कि दर्शनसार ले रचयिता देवसेन से भिन्न हैं) ने अपने ग्रन्थ "भावसंग्रह" में वीर निर्वाण सं० ६०६ में हुए भद्रबाहु के समय में श्वेताम्बर दिगम्बर भेद होने का उल्लेख किया है, उसे हरिषेण ने वी०नि० सं० १६३ अथवा १७० में स्वर्गस्थ होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया। घटनाचक्र के पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि हरिषेण ने श्वेताम्बरदिगम्बर मतभेद उत्पन्न होने की घटना को श्रुतकेवली भद्रबाह के समय से जोड़ने का जो प्रयास किया, वह उनके अनुयायियों के भी गले नहीं उतरा। हरिषेण के इस बयास का अनौचित्य कुछ विद्वानों के मन में खटकता रहा और इसके परिणामस्वरूप ईसा की १५वीं शताब्दी में एक नई मान्यता का प्रचार एवं प्रसार दिगम्बर परम्परा में हुआ। ' इष्टं नयंगरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च विधाय विविधं भुवि ।।६७।। प्रलंफालकसंयुक्तमज्ञात परमार्थकः। तैरिदं कल्पितं तीर्थ कातरः शक्तिवजितः ।।६।। [वृहत् कथाकोश, कथानक १३१, पृ० ३१८, ३१६] २ सिरिविमलसेणगणहरसिस्सो पामेण देवसेणो ति । मबुहजणबोहणत्यं तेणेयं विरहयं सुत॥ "भावसंग्रह" के अन्त में दी.हुई इस गाथा के माधार पर परमानन्द शास्त्री ने यह अभि. मत जाहिर किया है कि भावसंग्रह के कर्ता देवसेन दर्शनसार के कर्ता देवसेन से भिन्न है। देवसेन ने दर्शनसार में यह स्पष्टतः स्वीकार किया है कि प्राचीन भाचार्यों की गाथानों का संकलन कर वे दर्शनसार की रचना कर रहे हैं। वर्तनसार में दी हुई गाधामों में से कुछ गाथाएं भावसंग्रह में उपलला है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन गाथामों के कर्ता ये देवसेन हों पोर इस प्रकार पूर्ववर्ती प्राचार्य हों। ३ हरिषेण का समय ई० सन् ८३१ है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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