Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 928
________________ ७६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग साध्वी-परम्परा प्राचार्य वज्रसेन ने ईश्वरी से कहा - "श्रीविके ! भोजन में विष मिलाने की कोई आवश्यकता नहीं । कल यहां प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध हो जायगा।" - मुनिवचनों की अमोघता में अनन्य प्रास्थावती ईश्वरी ने विष की पुड़िया समेट कर उसे विनष्ट करने हेतु एक ओर रख दिया। ईश्वरी द्वारा प्रति करुण स्वर में बार-बार हार्दिक अनुरोध किये जाने पर प्रार्य वज्रसेन ने दो कवल भोजन उस विशुद्ध आहार में से ग्रहण किया। भविष्यदर्शी सत्यवक्ता मुनियों के वचन कभी मोघ नहीं होते। उसी रात्रि में अन्न से लदे जहाज सोपारकपूर के बन्दर पर पहुँचे। सूर्योदय होते ही नागरिकों को यथेप्सित मात्रा में अन्न उपलब्ध होने लगा। प्रारणहारी भीषण संकट के टलते ही सबने सुख की सांस ली। सबका कार्यकलाप पूर्ववत् चलने लगा। जैसे उन पर कभी कोई संकट पाया ही न हो। सूर्य की प्रचण्ड किरणों के संसर्ग से मरुभूमि की बालुराशि में उत्पन्न हुई दिगन्त व्यापिनी चमक में जलाशय की भ्रान्त कल्पना कर प्यासा मृग जिस तरह जल के लिये अनवरत दौड़ लगाता रहता है, ठीक उसी प्रकार लोगों में सर्वत्र सुखाभास की ओर ताबड़तोड़ दौड़ में होड़ लग रही थी। श्रेष्ठि जिनदत्त के घर पर भी अन्न पहुंचा। सबने भूख की ज्वाला को शान्त किया। श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने बीते प्राणापहारी संकट की विभीषिका पर विचार करते हुए अपने पति और चारों पुत्रों को सम्बोधित कर कहा :"यदि महामुनि वज्रसेन कुछ ही क्षण विलम्ब से आते तो हम सब लोग असंयतावस्था में, अवतावस्था में ही अकालमृत्यु द्वारा ग्रस्त हो अधोगति के भागी बनते। जीवन और मृत्यु के सन्धिकाल के अन्तिम क्षण में मुक्ति के देवता के रूप में मुनि उपस्थित हुए और उन्होंने हम सबको कराल काल के गाल में जाने से बचा लिया। मुनिराज ने ही हमें जीवन-दान दिया है। विषय-कषाय के प्रचण्ड झोंकों से निरन्तर जाज्वल्यमान् इस जन्म, जरा, मृत्यु रूपी दुःखदावानल में बारम्बार जलने के स्थान पर तो हम सबके लिये यह परम श्रेयस्कर होगा कि हम लोग प्राचार्य वचसेन के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर तप और संयम की अग्नि में अपने कर्मेन्धन को जला सदा के लिये इस दारुण दुःख-दावानल से बचने का प्रयास करें।" ईश्वरी के इस अति सुखद सुन्दर सुझाव की सराहना करते हुए जिनदत्त मादि सभी ने संसार से विरक्त हो प्रवजित होने का दृढ़ निश्चय कर लिया। ईम्य जिनदत्त, ईम्यपत्नी ईश्वरी तथा उनके नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति एवं विद्याधर-इन चारों पुत्रों ने अपार वैभव और समस्त सांसारिक भोगों को करा कर प्राचार्य वज्रसेन के पास सर्वविरति स्वरूप अणगार-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। ईश्वरी ने उस संकटकाल से शिक्षा ग्रहण की और उसके चिन्तन की सही दिशा ने उस भीषण संकट के अभिशाप को भी स्वयं के लिये तथा अपने परिवार के लिये वरदान के रूप में बदल दिया। किसी शायर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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