________________
साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण
७० उसका जो मन प्रार्य वज को प्राप्त कर सांसारिक भोगोपभोगों के लिये माकुलव्याकुल हो रहा था, अब वही मन मार्य वज्र को अपना योग-मार्ग का पाराध्यदेव बनाकर कण्टकाकीर्ण साधनापथ पर तत्काल अग्रसर होने के लिये व्यग्र हो उठा।
. रुक्मिणी ने प्रार्य वच के समक्ष शिर झका अंजलिबद्ध हो प्रार्थना की"मेरे माराध्य गुरुदेव ! आपने मेरे अन्तर के नेत्र उन्मीलित कर दिये हैं। मुझे मापने धर्ममार्ग पर प्रवृत्त कर नया जन्म दिया प्रतः भाप मेरे धर्म-पिता है। अपनी धर्म-पुत्री के गुरुतर सब अपराधों को क्षमा कर अपने संघ की शरण में लीजिये । मैं प्रवजित होना चाहती हूँ।"
___ इस प्रकार के प्रश्रुत-पूर्व अद्भुत हृदय-परिवर्तन और प्रपूर्व 'त्याग के समाचार विद्युत्वेग से तत्क्षण समस्त पाटलीपुत्र में फैल गये। जिसने सुना, उसी का शिर रुक्मिणी के प्रति श्रद्धा से सहसा मुक गया। रुक्मिणी ने मार्य वज की प्राज्ञानुवर्तिनी साध्वीमुख्या के पास श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर जीवनपर्यंत विशुद्ध संयम का पालन कर भवाटवी में भटकाने वाले कर्मभार को हल्का किया। प्रार्या रुक्मिणी का अनुपम त्यागपूर्ण जीवन साधक-साधिकानों के लिये बड़ा प्रेरणादायक रहा है और भावी सहस्राब्दियों तक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
. महासतीपारिलो.
(वीर नि०सं० २४-६० के लगभग). .. साध्वी धारिणी का जीवन चरित्र जैन इतिहास में वस्तुतः प्रादर्श नारी का प्रतीक माना जाकर सदा स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता रहेगा। श्रमणी धर्म में दीक्षित होने से पूर्व अपने सतीत्व को रक्षा हेतु अतुल ऐश्वर्य और अपनी संतति तक का मोह त्याग कर तथा श्रमणी धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् दो राज्यों के युद्ध में संभावित भीषण नरसंहार को रोक कर महासती परिणी ने संसार के समक्ष जो दो उच्चकोटि के प्रादर्श प्रस्तुत किये, उनसे प्रार्य सन्नारियों अपने पापको गौरवान्वित अनुभव करती हुई सदा प्रेरणाएं लेती रहेंगी।
धारिणी प्रवन्ती-राज्य के अधीश्वर महाराजा पालक के छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन की पत्नी (चण्डप्रद्योत की पौत्रवधु) थी। अवन्तीश पालक ने वीर नि० सं० २० में अपने बड़े पुत्र अवन्तीवर्द्धन को प्रवन्ती का राज्य और छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद दे कर आर्य सुधर्मा के पास श्रमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। अवन्तीवर्धन अपने छोटे भाई युवराज राष्ट्रवर्द्धन के परामर्श से राज-काज का संचालन करने लगा। युवराज्ञी धारिणी ने एक पुत्र को जन्म दिया। शिशु का नाम प्रवन्तीसेन रखा गया। धारिणी अपने पति के साथ अवन्ती राज्य के ऐश्वर्य एवं विविध एहिक सुखों का उपभोग करती हुई अपना समय व्यतीत कर रही थी। ' महासती धारिणी का परिचय प्रस्तुत अन्य के पृष्ठ ७७८ पर मार्या यक्षा से पूर्व दिया जाना चाहिए था पर असावधानी से यह भूल रह गई।
- सम्पादक २ प्रावश्यक चूरिण, भाग २, पृ. १८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org