Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 912
________________ ७८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ साध्वी-परम्परा उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं था तथापि साध्वी- समुदाय परम्परा से श्रमणसंघ का अभिन्न अंग रहा है। पृथक् समुदायों के रूप में इन दोनों का अस्तित्व रहने के उपरान्त भी नीति निर्देश, ज्ञानार्जन, मार्गदर्शन प्रादि की दृष्टि से साध्वी समूह सदा से श्रमण संघ के तत्वावधान में कार्य करता रहा है अतः यह सुनिश्चित सा प्रतीत होता है कि श्रमरणसंघ का नेतृत्व ज्यों ही अनेक प्राचायों में विभक्त हुआ त्यों ही श्रमणी - समूह का नेतृत्व भी उन पृथक् हुए प्राचार्यों की प्रमुख शिष्यानों के तत्वावधान में विभक्त हो गया होगा । चाहे प्रार्या पोइणी तटस्थ भाव से अपने साध्वी-समाज का नेतृत्व करती रही हों, चाहे वह प्रार्य बलिस्सह प्रथवा सुस्थित की परम्परा की साध्वियों के समुदाय की संचालिका रही हों पर कुमारी पर्वत पर हुई ग्रागम-परिषद् में साध्वी पोहणी के उपस्थित होने और एकादशांगी के पाठों के निर्धारण में उनके द्वारा सहयोग दिये जाने सम्बन्धी हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप समस्त चतुविध संघ साध्वी पोइणी की ज्ञान-गरिमा का बड़ा समादर करता था और संघ में उनका बड़ा महत्वपूर्ण स्थान था । पोइणी का संस्कृत रूपान्तर है 'पोतिनी' - प्रर्थात् बहुत बड़ी जहाज । इस नाम से भी यही प्रकट होता है कि वे प्रपने समय की बड़ी ही प्रभाविका महासती हुई हैं, जिन्हें भव्यजन भव-सागर से पार लगाने वाली धर्मजहाज मानते थे । कलिंग जैसे दूरस्थ प्रदेश के कुमारी पर्वत के समान दुरूह एवं विकट स्थान पर ३०० श्रमरिगयों के एकत्रित होने सम्बन्धी हिमवन्त स्थविरावली के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि वीर निर्वारण की चौथी शती में श्रमणी - समुदाय का स्वरूप सुविशाल था और भारत के विभिन्न प्रान्तों में श्रमरणों की तरह श्रमणियां भी प्रतिहत विहार करती हुईं जन-जन के मन में प्राध्यात्मिक चेतना उत्पन्न कर रही थीं । साध्वी सरस्वती ( वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी) वीर की पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध (आर्य गुणाकर के समय) में द्वितीय कालकाचार्य के साथ उनकी भगिनी सरस्वती द्वारा पंच महाव्रत स्वरूप निर्ग्रन्थ श्रमण-दीक्षा ग्रहण किये जाने का उल्लेख मिलता है । द्वितीय कालकाचार्य के प्रकरण में साध्वी सरस्वती का पूरा परिचय दिया जा चुका है ।' साध्वी सरस्वती ने अपने ऊपर आये हुए संकट में बड़े साहस से काम लिया । गर्दभिल्ल के राजमहल में बन्दिनी की तरह बन्द किये जाने, १ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५१०- ५१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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