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साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण
७८३ गर्दभिल्ल द्वारा अनेक प्रकार की यातनाएं, भय एवं प्रलोभन दिये जाने के उपरान्त भी वे सत्पथ से विचलित नहीं हुई। गर्दभिल्ल के पाश से मुक्त होने के पश्चात् प्रार्या सरस्वती ने प्रात्मशुद्धि पूर्वक जीवन पर्यन्त कठोर तप एवं संयम की साधना को और अन्त में समाधिपूर्वक देह त्याग कर सद्गति प्राप्त की।
साध्वी सुनन्दा
(वीर की छठी शताब्दी का प्रारम्भ) वीर की पांचवीं शताब्दी के द्वितीय एवं तृतीय चरण में हुई साध्वी सरस्वती के पश्चात् वीर नि० सं० ५०४ के आसपास मार्य वज की माता सुनन्दा द्वारा प्रार्य सिंह गिरि की प्राज्ञानुवर्तिनी स्थविरा साध्वी के पास श्रमणी-धर्म की दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख उपलब्ध होता है । धनगिरि जैसे भवविरक्त महान् त्यागी की पत्नी और मार्य वज जैसे महान युगप्रधानाचार्य की माता सुनन्दा का गौरव-गरिमापूर्ण उल्लेख जैन इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में किया जाता रहेगा। यौवन भरी प्रथम वय में सुनन्दा ने गुविणी होते हुए भी दीक्षित होने के लिये उत्कण्ठित अपने पति को प्रवजित होने की अनुमति देकर जो प्रादर्श भारतीय नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया, वह अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होगा। _ . उपलब्ध प्राचीन साहित्य में यद्यपि विगत की बीच-बीच की अनेक कालावधियों में सध्वियों के नामोल्लेख नहीं मिलते तथापि कतिपय ऐसे प्रबल प्रमाण साहित्य में मिलते हैं, जिनके आधार पर सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वीर निर्वाण के पश्चात् साध्वी-परम्परा कभी विच्छिन्न नहीं हुई अपितु वह प्रक्षुण्ण रूप से चलती रही है।
- उन अनेक प्रबल प्रमाणों में से एक प्रमाण है प्रार्य वज्र का शंशवकाल । प्रायं वज्र का वीर नि० सं०४६६ में जन्म हुमा। जन्म के थोड़ी देर पश्चात् ही अपनी माता की सहेलो के मुख से अपने पिता धनगिरि के दीशित होने की बात सुनकर शिशु वज्र को जातिस्मर ज्ञान हो गया। उनके प्रति माता की ममता न बढ़े और उसके परिणाम स्वरूप उन्हें समय पर दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय - यह विचार कर बालक वज ने रुदन ठाना । वज्र का रुदन तभी बन्द हा जब कि उसकी माता सुनन्दा ने उसे सदा-सर्वदा के लिये श्रमण-संघ को अर्पित करते हुए पार्य धनगिरी की झोली में रखा। अपने शिष्य धनगिरि को तुम्बवन में मधुकरी के समय प्राप्त हुए शिशु वच को आर्य सिंहगिरी ने समुचित समय तक पालनार्थ शय्यातरी श्राविका को सम्हला दिया।
जातिस्मर-ज्ञान-सम्पन्न बालक वज ने शय्यातरी के साथ दिन के समय निरन्तर ज्ञानस्थविरा श्रमणियों के मुख से सुन-सुनकर बाल्यकाल में ही सम्पूर्ण एकादशांगी को कण्ठस्थ कर लिया।
इस प्रकार आर्य वज्र द्वारा श्रमणियों के मुखारविन्द से सुन-सुनकर एकादशांगी के कण्ठस्थ किये जाने का उल्लेख इस बात का प्रबल प्रमाण है कि बीच
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