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साम्ची-परम्परा] सामान्य पूर्वघर-कान : देवरि समाश्रमण
प्रागमं के पाठों को स्थिर प्रथवा सुनिश्चित करने में जिस साम्बी की सहायता ली गई हो, वह साध्वी कितनी बड़ी शान-स्थविरा, मागम-मर्मशा, प्रतिमाशालिनी और प्रकाण्ड विदुषी होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। ज्ञान और क्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति भार्या पोइणी जैसी विदुषी का कुल, वय, शिक्षा, दीक्षा एवं साधना संबन्धी परिचय पंचपि माज उपलब्ध नहीं है तथापि यह अनुमान किया जा सकता है कि भार्या यक्षा के पश्चात् किसी निकटवर्ती समय में ही प्रार्या पोइणी ने साध्वी संघ में प्रमुख स्थान प्राप्त किया और वह एक बहुश्रुता, संघ संचालन में कुशल एवं प्राचारनिष्ठा साध्वी थीं।
. प्रार्य महागिरि के प्राचार्यकाल तक श्रमण संघ में एक प्राचार्य को परम्परा रही, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रार्या यक्षा के समय तक साध्वी संघ एक हो प्रवर्तिनी अथवा साध्वीसंघमुख्या के नेतृत्व में चलता रहा । विदुषी साध्वी पोइणी के समय में साधु-संघ की तरह साध्वी-संघ में भी पृथक् नेतृत्व का प्रचलन हो गया था अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख उपलब्ध न होने के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । परन्तु अनुमान किया जाता है कि प्रार्य महागिरि के पश्चात् श्रमण-संघ में हुए पृथक् नेतृत्व के प्रादुर्भाव का साध्वी-संघ पर भी सहज ही प्रभाव पड़ा होगा। इतना सब कुछ होते हुए भी यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि साधारण मतभेद होने के उपरान्त भी उस समय तक मन-भेद नहीं हुआ था। इस अनुमान की हिमवन्त स्थविराली के निम्नलिखित उल्लेख से भो पुष्टि होती है, जिसमें कुमारिगिरि पर प्रायोजित मागम परिषद में दोनों परम्परागों के मुनिमण्डलों के एकत्रित होने का स्पष्ट उल्लेख है :
".............."तेणं भिक्खुराय रिणवेणं.........."समणाणं णिग्गंठाणं रिणग्गंठीणं य एगा परिसा तत्य कुमारि पव्वयतित्यम्मि मेलिया । तत्य गं राणं अज्जमहागिरीणमणुपत्ताणं बलिस्सह बोहिलिंग देवायरि धम्मसेण नक्खतायरियाइ जिणकप्पि तुलत्तं कुणमारणाणं दुणिसया रिणग्गंठारणं समागया। प्रज्ज सुट्ठिय सुवडिवड्ढ उमसाइ सामज्जाइणं थेरकप्पियाणं वि तिग्निसया निग्गंठाणं समागया।............"
अर्थात् - महाराज भिक्खुराय द्वारा प्रायोजित निग्रन्थ श्रमण-श्रमणियों की परिषद् में प्राचार की दृष्टि से जिनकल्पियों के समान व्यवहार करने वाले मार्य बलिस्सह प्रादि २०० साधु और स्थविरकल्पी आर्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध आदि ३०० साधु एकत्रित हुए। बाह्य वेष के साधारण भेद के उपरान्त भी उनके अन्तर्मन एक थे, भेद रहित थे और उन सब ने एक साथ बैठकर पारस्परिक सहयोग से विचारों के आदान-प्रदान से आगम-परिषद को सफल बनाया। . साधु-समूह के समान साध्वी-समूह के समक्ष जिनकल्प और स्थविरकल्प का प्रश्न न होने की दृष्टि से यद्यपि साध्वी-संघ में पृथक् नेतृत्व की भावना के 'हिमवन्त स्थविरावली (अप्रकाशित)
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