Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 891
________________ काल नि. ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७६१ कर प्राचार्य कुन्दकुन्द के.समय का निर्णय करना वस्तुतः आकाश कुसुम में सुगन्ध ढूंढने तुल्य निरर्थक प्रयास ही होगा। ____ख्यातनाम विद्वान् डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने स्वसंपादित प्रवचनसार की प्रस्तावना में प्राचार्य कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । स्वर्गीय श्री नाथूराम प्रेमी, डॉ० पाठक, प्रोफेसर चक्रवर्ती और पं० जुगलकिशोर मुख्तार के अभिमतों को पस्तुत करते हुए उन्होंने केवल प्रोफेसर चक्रवर्ती के इस अभिमत एवं संभावना को अपना थोड़ा समर्थन प्रदान किया है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लवनरेश शिवस्कन्द के समकालीन तथा तामिल भाषा के प्रसिद्ध ग्रन्थ कुरल के कर्ता थे। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने विस्तृत विवेचन के पश्चात् ऊहापोह के साथ जो अपना अभिमत व्यक्त किया है, वह दस रूप में है :-. __ "कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में, जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छान-बीन करने तथा विभिन्न दृष्टिकोणों से समस्या का मूल्य प्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है। हमने देखा है कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्द्ध' और ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वाद्ध बतलाती है। कुन्दकुन्द से पूर्व षट्खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है । मर्करा ताम्रपत्र से उनकी अन्तिम कालावधि तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिये । चचित मर्यादाओं के प्रकाश में, ये संभावनाएं कि कुन्दकुन्द पल्लववंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित आधारों पर यह प्रमाणित हो जाये कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रचा था, सूचित करती है कि ऊपर बतलाये गये विस्तृत प्रमारणों के प्रकाश में कुन्दकुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियां होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है (प्रवचनसार प्रस्तावना पृ० २२)२ डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार पर लिखी गई अपनी प्रस्तावना में प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जो टापने विचार रखे हैं, उनमें संभावनाओं के अतिरित्त ऐसा कोई ठोस प्रमाण दृष्टिगोचर नहीं होता, जिससे कि उनके द्वारा प्रकट किये गये अभिमत की पुष्टि होती हो एवं सुनिश्चित 'प्राचार्य कुन्दकुन्द के सामान्यतः सभी ग्रन्थों से एवं विशेषतः सुत्तपाहर से यह स्पष्टतः सिड होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य उस समय के प्राचार्य हैं, जिस समय श्वेताम्बर-दिगम्बर मतमेव परम सीमा तक पहुंच चुका था। यह तो दोनों परम्परामों द्वारा सम्मत ऐतिहासिक तथ्य है कि बीर नि. सं. ६.६ अथवा ६.६ में निग्रंथ संप इन दो संघों में विमल हुमा । ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उतराई भी कुन्दकुन्द का समय हो सकता है, इस प्रकार की परम्परागत मान्यता तो कहीं देखने सुनने में नहीं पाई। -सम्पात कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह की प्रस्तावना, पृ. ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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