________________
काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वघर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण
अमृतचंद्र द्वारा उल्लिखित उस प्रसान्न भव्य का नाम बिना किसी विशेषण के केवल शिवकुमार दिया है ।"
यहां यह विचारणीय है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र ने समय प्राभृत आदि की टीकाओं में न ग्रन्थकार का नाम दिया है श्रौरन यही उल्लेख किया है कि वह ग्रन्थ किसके प्रतिबोधार्थ निर्मित किया गया। इसके विपरीत आचार्य जयसेन ने 'पंचास्तिकाय प्राभृत' की अपनी तात्पर्य वृत्ति में ग्रन्थकार का नाम आचार्य कुन्दकुन्द बताते हुए उनके विदेह-गमन, वहां श्रीमंदरस्वामी की वाणी के श्रवण आदि का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि विदेह क्षेत्र से लौटने के पश्चात् प्राचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज आदि संक्षेपरुचि शिष्यों को प्रतिबोध देने के लिये पंचास्तिकाय प्राभृत की रचना की ।
जयसेन के पश्चात् ईसा की १३ वीं शताब्दी के प्रथम चरण के लगभग हुए प्राध्यात्मी बालचन्द्र ने प्रवचनसार की अपनी कन्नड़ टीका में, अमृतचन्द्र द्वारा "आसन्न संसारपार : " के रूप में तथा जयसेन द्वारा " कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमार नामा" के रूप में उल्लिखित उस प्रसन्न भव्य का अपनी श्रोर से विशेषरण लगा कर "आसन्नभव्यनं अप्प शिवकुमार महाराजम् " के रूप में परिचय दिया है ।
७५.
उपर्युक्त तीनों टीकाकारों के इन उल्लेखों के सम्बन्ध में विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि प्रवचनसार की रचना कुन्दकुन्द द्वारा और वह भी शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये की गई, यह ईसा की १२वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए टीकाकार जयसेन की अपनी स्वयं की कल्पना है । यदि ईसा की १०वीं शताब्दी तक इस प्रकार की मान्यता प्रचलित होती अथवा किसी ग्रन्थ में इस प्रकार का उल्लेख होता कि कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार की रचना की और शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिए की, तो ईसा की १०वीं शताब्दी के टीकाकार अमृतचन्द्र अपनी टीका में जयसेन की तरह अवश्य ही इस प्रकार का उल्लेख करते । स्त्री उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती - इस विषय का प्रतिपादन करने वाली ११ गाथाओं का अमृतचन्द्र द्वारा अपनी टीका में सम्मिलित न किया जाना भी प्रत्येक तटस्थ विचारक के मस्तिष्क में
१ प्रवचनसार ( ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित ) पृ० १-२
(क) अथ कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव शिष्यः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गत्वा वीतराग सर्वज्ञ श्रीमंदरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवरणावधारित पदार्थाच्छुद्धात्मतत्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीमत्कुण्डकुन्दाचार्य देवः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयेरन्तस्तत्त्व बहिस्तस्त्वगौरण मुख्यप्रतिपत्त्यर्थं प्रथवा शिवकुमार महाराजादि संक्षेपरुचि शिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पञ्चास्तिकाय प्रामृतशास्त्रे, यथाक्रमेणाविकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यागंव्याख्यानं कथ्यते ।
[ पंचास्तिकायप्राभूत, जयसेनाचार्यकृततात्पर्यवृत्तिः ] (ख) मय प्राभूतग्रन्थे शिवकुमार महाराजो निमित्त अन्यत्र द्रव्य संग्रहादी मोमा श्रेष्ठ्यादि ज्ञातव्यम् । [ वही, गावा एक की जयसेनाज़ायंकृत वृत्ति ]
२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org