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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति कालीन होने का अनुमान किया है, उस पर माघनन्दि, धरसेन जिनपालित (जिनचन्द्र) आदि के सम्बन्ध में ऊपर प्रस्तुत किये गये तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर श्री पाठक का अनुमान तथ्य के थोड़ा निकट पहुँचता हुप्रा प्रतीत होता है।
यह यहले बताया जा चुका है कि प्राज से ६० वर्ष पूर्व पं० गजाधरजी जैन, न्यायशास्त्री ने भी कुन्दकुन्द का समय शक सं० ४५० तदनुसार वीर नि० सं० १०५५ के आस-पास का अनुमानित किया था।'
- आचार्य कुन्दकुन्द के समय पर विचार करते समय कोरिण महाराजा अविनीत (कोङ्गणि द्वितीय) का मर्करा के खजाने से प्राप्त ताम्रपत्र (संस्कृत कन्नड़), जिस पर कि संवत्सर ३८८ (सोमवार स्वाति नक्षत्र) अंकित है, विद्वानों में विगत अनेक वर्षों से बड़ा चर्चा का विषय रहा है । इस ताम्रपत्र के-"श्रीमान् कोङ्करिण महाराज अविनीत नामधेय दत्तस्य देसिगगरणं कोण्डकुन्दान्वय गुणचन्द्रभट्टार शिष्यस्य अभयरणंदि" आदि अंश में 'देसिग गणं कोण्डकुन्दान्वय' के ६ प्राचार्यों का उल्लेख देख कर ए० एन० उपाध्ये 3 आदि अनेक विद्वानों ने कुन्दकुन्दाचार्य का समय ईसा की तीसरी शताब्दी अनुमानित किया था। पर डॉ० गुलाबचन्द चौधरी ने गहन शोध के पश्चात् प्रमाणपुरस्सर मर्करा के उक्त ताम्रपत्र को बनावटी सिद्ध कर दिया है। डॉ० हीरालालजी ने भी श्री चौधरी के शोधपूर्ण अभिमत की पुष्टि करते हुए लिखा है :
"(११) मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के आधार पर कोण्डकुन्दान्वय का अस्तित्व ५ वीं शती में माना जाता है, वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी सिद्ध होता है, तथा देशीय गण की जो परम्परा उस लेख में दी गई है, वह लेख नं० १५० (सन् ९३१) के बाद की मालूम होती है।
(१२) कोण्डकुन्दान्वय का स्वतन्त्र प्रयोग आठवीं नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूल संघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग लेख नं० १८० (लगभग १०४४ ई०) ५ में हरा पाया जाता है।" ... उपरिलिखित तथ्यों और विस्तृत चर्चा से कुन्दकुन्दाचार्य का काल वीर नि० सं० १००० के आस-पास का सुनिश्चित हो जाने के अनन्तर विद्वानों के लिये यह खोज करना भी परमाश्यक हो जाता है कि वस्तुतः प्राचार्य कुन्दकुन्द ने किन-किन ग्रन्थों का निर्माण किया।
' प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ७५७ . २ जैन शिलालेख संग्रह, भा॰ २, पृ० ६३-६४ : 3 Introduction on Pravachansar, (by A. N. Upadhye) p. 22 ४ चैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, (मा० दिग० ग्रन्थमाला) प्रस्तावना, पृ० ४६.५० ५ जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० २२० (मा. दिग• जैन ग्रं. माला) 'जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, प्राक्कपन, पृ० ३
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