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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि ग० भ्रान्ति ___राष्ट्रकूटवंशी राजा गोविन्द तृतीय के वे दोनों ताम्रपत्राभिलेख विद्वानों में बड़े चर्चा के विषय रहे हैं अतः पाठकों की सुविधार्थ उन्हें यहां यथावत् उद्ध त किया जा रहा है :
राष्ट्रकूटवंशीय महाराज गोविन्द तृतीय
शक सं०७१६ का ताम्रलेख प्रासीद् (वै) तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः । स . चैतद्विषये श्रीमान्, शाल्मलीग्राममाश्रितः ।। निराकृततमोऽराति, स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजोद्योतित क्षोणिश्चण्डाचिरिव यो बभौ ।। तस्याभूत् पुष्पनन्दी तु शिष्यो विद्वान् गणाग्रणीः । तच्छिष्यश्च प्रभाचन्द्रस्तस्येयं वसतिः . कृता। गोविन्द तृतीय का शक सं०७२४
का
दूसरा ताम्रलेख कोण्डकोन्दान्वयोदारो, गणोऽभूद् भुवनस्तुतः। तदेतद् विषय विख्यातं' शाल्मली ग्राममावसम् (द) । पासीद् (वै) तोरणाचार्यस्तपः . फलंपरिग्रहः । तत्रोपशमसंभूतभावनापास्तकल्मशः , पण्डितः पुष्पनन्दीति, .. बभूव भुवि विश्रुतः ।. अन्तेवासी मुमेस्तस्य सकलश्चन्द्रमा .. इव ॥ प्रतिदिवस भववृद्धिनिरस्तदोषो व्यपेत हृदयमलः । ।
परिभृतचन्द्रबिम्बस्तच्छिष्योऽभूत् प्रभाचन्द्रः ।। उपर्युल्लिखित दोनों ताम्रपत्राभिलेखों का भावार्थ यह है कि कोण्डकुन्दान्वयी तोरणाचार्य शाल्मली ग्राम में प्राकर रहे। उन्होंने प्रज्ञानान्धकार को ध्वस्त कर लोगों को सत्पथ का पथिक बनाया। अपने तंपस्तेज से पृथ्वी-मण्डल को प्रकाशित करते हुए वे मध्याह्न के सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। उनके शिष्य पुष्पनन्दि हुए, जो बड़े विद्वान् एवं दूर-दूर तक विख्यात थे। उन पुष्पनन्दि के अन्तेवासी शिष्य प्रभाचन्द्र नामक मुनि हुए, जो सब प्रकार के दोषों से रहित, विशुद्ध हृदय एवं पूर्णिमा के चन्द्र के समान देदीप्यमान मुखमण्डल वाले थे। - स्व० गॅ० के० बी० पाठक का कहना है कि पहले का लेख शक सं०७१६ का है तो प्रभाचन्द्र के दादागुरु तोरणचार्य शक सं० ६०० के पास-पास रहे होंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है । तोरणाचार्य जब कुन्दकुन्दान्वय में हुए हैं तो . . "विषयस्यातं' पाठ होना चाहिये प्रन्यया छन्दो-मंग की स्थिति होती है।
न शिलालेख संग्रह, भा॰ २, पृ. १२२, १२३ भोर १२६,
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