Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 894
________________ ७६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति आज से १११० वर्ष पूर्व के हरिवंश के उल्लेख और उपरिवरिणत तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्राचार्य महद्वलि का अंतिम समय वीर नि सं. ७८३ के पास-पास का सुनिश्चित किया जा सकता है । इस प्रकार अहंबलि का समय वीर नि० सं० ७८३ सिद्ध हो जाने पर उनके पश्चात् हुए माघनन्दि का प्राचार्यकाल २० वर्ष, माघनन्दि और धरसेन के बीच हुए प्राचार्यों के नाम और संख्या विषयक उल्लेख के अभाव में उनके काल की गणना न कर के धरसेन का काल २० वर्ष, (वी० नि० सं० ८२३) पुष्पदन्त का ३० वर्ष, जिनपालित का समय ३० वर्ष अनुमानित किया जाय तो जिनपालित का अंतिम समय वीर नि० सं० ८८३ के पास-पास का अनुमानित किया जा सकता है। इससे आगे जिन पालित और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच में कितने काल में कितने प्राचार्य हुए, इस तथ्य को प्रकट करने वाले तथ्यों के अभाव में इन्द्रनन्दि द्वारा पद्मनन्दि के सम्बन्ध में श्रुतावतार में उल्लिखित निम्नलिखित श्लोक के आधार पर अनुमान का सहारा लेने के अतिरिक्त पद्मनन्दि (कुन्दकुन्दाचार्य) के काल के बारे में विचार करने का और कोई मार्ग ही अवशिष्ट नहीं रह जाता : एवं द्विविधोद्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ श्री पद्मनन्दि मुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थ परिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।।१६१॥ . इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि जिनपालित और कुन्दकुन्द के बीच में अधिक न सही तीन-चार प्राचार्य अवश्य हुए होंगे। उन प्रज्ञातनाम ३-४ प्राचार्यों का समुच्चय काल कम से कम ६० वर्ष भी मान लिया जाय तो प्राचार्य पमनन्दि, अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य का समय वीर नि० सं० ९४३ के आस-पास का मौर माघनन्दी तथा धरसेन के बीच में तीन-चार प्राचार्यों का अस्तित्व मान लेने की दशा में वीर नि० सं० १००० के आस-पास का अनुमानित किया जा सकता है । ईसा की १२वीं शताब्दी के टीकाकार जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका में प्राचार्य कुन्दकुन्द को देवनन्दि सिद्धान्त देव का शिष्य बताया है, नन्दिसंघ की पट्टावली में इन्हें भद्रबाहु द्वितीय का परम्परा-शिष्य तथा जिनचन्द्र का शिष्य बताया गया है, बोध प्राभृत की गाथा संख्या ६१ तथा ६२ के माधार पर कतिपय विद्वान् यहां तक कल्पना करते हैं कि प्राचार्य कुन्दकुन्द वस्तुतः चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के साक्षात् शिष्य थे। शक सं० १३२० के सिद्धरबस्ती के लेख सं० १०५ के श्लोक सं० १३ में कुन्दकुन्द का नाम आचार्य वीर के पश्चात् दिया गया है। इससे यह आशंका भी उत्पन्न होती है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु का नाम वीर था। इन सब उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा की १२वीं शताब्दि ' शिलालेख संग्रह, भा०१, पृ० १७ पर दिये गये इस लेख के श्लोक सं० १३ में उल्लिखित "इत्याचनेक सूरीष्वय सुपदमुपेतेषु" इस पद से प्रकट होता है कि लोहाचार्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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