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काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमरण
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के टीकाकार जयसेन के समय में ही नहीं अपितु उससे पहले ईसा की ११वीं शताब्दी के अंत के श्रुतावतारकार इन्द्रनन्दि के समय में भी दिगम्बर परम्परा के साहित्य में प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु के नाम के सम्बन्ध में कोई सर्वसम्मत प्रामाणिक उल्लेख ग्रस्तित्व में नहीं था । यही कारण है कि विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं पट्टावलियों में उनके गुरु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उल्लेख उपलब्ध होते हैं । आचार्य परम्परा विषयक विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों, पट्टावलियों आदि में उपलब्ध उल्लेखों का पूर्णतः तटस्थ दृष्टि से पर्यवेक्षरण करने पर निम्नलिखित संभावनाएं अनुमानित की जा सकती हैं ।
१. आचार्य कुन्दकुन्द नन्दिसंघ की परम्परा के परम प्रतिभाशाली महान् प्राचार्य थे ।
२. जिस प्रकार भद्रबाहु द्वितीय और माघनन्दि के बीच ६ प्राचार्यों के होते हुए भी नन्दि संघ की पट्टावली में उन्हें भद्रबाहु के शिष्य गुप्ति गुप्त का शिष्य बताया गया है, उसी प्रकार माघनन्दि श्रौर जिनचन्द्र के बीच में भी अनेक प्राचार्यों के होने के उपरान्त भी जिनचन्द्र को माघनन्दि का शिष्य बताया गया है । इसका कारण संक्षेप में वर्णन करने की प्रणाली का अवलम्बन अथवा बीच के प्राचार्यों के नामों की विस्मृति हो सकता है ।
३. कुन्दकुन्द को जिन प्राचार्य जिनचन्द्र का शिष्य बताया गया है वे जिनचन्द्र कहीं पुष्पदन्त के भांगिनेय एवं शिष्य जिनपालित ही तो नहीं हैं । गृहस्थ काल का जिनपालित नाम प्राचार्यकाल में चन्द्र के समान धर्मोद्योत करने पर जिनचन्द्र के रूप में परिवर्तित हो जाना बुद्धिसंगत भी प्रतीत होता है ।
४. जिस प्रकार भद्रबाहु द्वितीय तथा माघनन्दि के बीच में श्रौर माघनन्दि तथा जिनचन्द्र ( जिनपालित) के बीच में अनेक प्राचार्यों के होने के उपरान्त भी उनका परस्पर साक्षात् गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना दिया गया, ठीक उसी तरह यह भी संभव है कि जिनपालित - जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच में अनेक श्राचार्यों के होते हुए भी नन्दिसंघ की पट्टावली में इनका उल्लेख साक्षात् गुरुशिष्य के रूप में कर दिया गया हो ।
यदि उपरोक्त संभावनाएं इतिहास के विशेषज्ञों द्वारा तथ्य की कसौटी पर कसी जाने के अनन्तर खरी उतरें तो प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय, राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीय के राज्यकाल के शक सं० ७१६ और ७२४ के दो ताम्रपत्रों के आधार पर डॉ० के० पी० पाठक द्वारा प्रकट किये गये उनके श्रभिमतानुसार शक सं० ४५०, तदनुसार वीर नि० सं० १०५५ तो नहीं पर जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, वीर नि०सं० १५० के प्रास-पास का श्रौर उनका स्वर्गारोहणकाल वीर नि० सं० १००० के पश्चात् तक का हो सकता है :
कुन्दकुन्द के बीच में हुए जितने प्राचायों के नाम लेख में दिये गये हैं, उनके प्रतिरिक्त मोर भी प्राचार्य हुए थे ।
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