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सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण केवली-काल से पूर्वधरकाल तक
साध्वी-परम्परा जैनधर्म की अनादिकाल से यह विशेषता रही है कि इसमें पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी साधनापथ पर अग्रसर होने की पूर्ण अधिकारिणी माना गया है। जिस प्रकार किसी भी वर्ण, वर्ग अथवा जाति का मुमुक्ष पुरुष अपने सामर्थ्यानुसार प्रणवत अंगीकार कर श्रावक एवं पंच महाव्रत धारण कर श्रमण बन सकता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वर्ग, वर्ण अथवा जाति की स्त्री भी अपनी शक्ति एवं इच्छा के अनुरूप श्रमणोपासिका-धर्म अथवा श्रमणी-धर्म ग्रहण कर सकती है । "स्त्रीशूद्रो नापीयेताम्" - इस प्रकार के प्रतिबन्ध के लिये जैनधर्म में कभी कहीं किंचिरमात्र भी स्थान नहीं रखा गया है। इसका अकाट्य प्रमाण है अनादिकाल से तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने समय में साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना किया जाना । यदि स्त्रियों को इस अधिकार से वंचित रखा जाता तो जैनधर्म में पतुर्विध तीर्थ के स्थान पर साधु और श्रावक वर्ग के रूप में द्विविध तीर्थ ही होता । वस्तुस्थिति यह है कि अनादिकाल से तीर्थंकर तीर्थ-स्थापना के समय पुरुष वर्ग की तरह नारीवर्ग को भी साधनाक्षेत्र का सुयोग्य एवं सक्षम अधिकारी समझकर चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते पाये हैं।
इतिहास साक्षी है कि सभी तथंकरों द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य अधिकार का स्त्रियों ने सहर्ष हार्दिक स्वागत किया। इस अधिकार का सदुपयोग करते हुए महिलाएं भी पुरुषों की तरह बड़े साहस के साप साधनापथ पर अग्रसर हुईं और उन्होंने पारमकल्याण के साथ-साथ बनकल्याण करते हुए जैनधर्म के प्रचार, प्रसार तथा अभ्युत्थान में परम्परा से बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान दिया।
चौबीसों तीर्थकरों के साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकानों की संस्था के तुलनात्मक ईक्षण से तो वस्तुतः ऐसा प्रकट होता है कि साषनापथ में महिलाएं सदा पुरुषों से बहुत पागे रही है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्रामाणिक ग्रन्थों में भगवान महावीर के साधुषों की संख्या बहां १४,००० दी है, वहां साध्वियों की संख्या ३६,००० दी है, जो साधुनों की संख्या की तुलना में बाईगुना से भी अधिक है। प्रभु महावीर की श्राविकामों की संख्या भी श्रावकों की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा के अन्यों में दुगुनी मोर. दिगम्बर परम्परा के अन्यों में तिगुनी बताई गई है। इसी प्रकार दोनों परम्परामों के अन्यों में शेष २३ तीपंकरों के साधुनों की अपेक्षा साध्वियों की तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकानों की संख्या सवागुनी से लेकर चतुर्गुणित तक अधिक बताई गई है।
दिगम्बर परम्परा में तो (यापनीय संघ को छोड़) स्त्री-मुक्ति नहीं मानी गई है। पर श्वेताम्बर परम्परा के मागम 'जम्मूढीप प्राप्ति' में भगवान ऋषभदेव
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