________________
काल नि० ग० भ्रान्ति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमरण -
७६७
कुन्दकुन्द का समय उनसे १५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के लगभग मानने में कोई हानि नहीं ।
यहां श्री पाठक ने तोरणाचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य के समय निर्धारण में जिस अनुमान अथवा कल्पना की प्रक्रिया का अवलम्बन किया है, उसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक अनुभव करेगा कि किसी भी तरह के आधार के अंकुश के प्रभाव में इस प्रकार के काल्पनिक काल को तो कोई यथेच्छ घटा अथवा बढ़ा सकता है । ताम्रपत्र में उल्लेख है कि शक सं० ७१६ में प्रभाचन्द्र के नाम पर वसति का निर्मारण कराया गया । वे प्रभाचन्द्र पुष्पनन्दि के शिष्य एवं तोरणाचार्य के प्रशिष्य थे । इनमें से प्रत्येक आचार्य का ४० वर्ष का प्राचार्य काल गिनने पर ही श्री पाठक के कथनानुसार तोरणाचार्य का प्राचार्य पद पर आसीन होने का काल शक सं० ६०० के आस-पास हो सकता है। एक से अधिक - अनेक प्राचार्यों के प्रज्ञात काल के सम्बन्ध में किसी संभावित निर्णय पर पहुँचना हो तो मोटे तौर पर प्रत्येक प्राचार्य का काल २० वर्ष के लगभग अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य के काल निर्णय के प्रयास में श्री पाठक ने अनुमान लगाया है कि तोरणाचार्य से १५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के लगभग कुन्दकुन्दाचार्य का समय मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है । एक विद्वान् कह सकता है कि कुन्दकुन्दाचार्य और तोरणाचार्य के बीच का अन्तराल काल २०० वर्ष माना जाय । इसी प्रकार दूसरा ५० वर्ष और तीसरा विद्वान् १०० वर्ष का अन्तराल काल मानने की बात कह सकता है |
श्री पाठक ने अपने अनुमान को साधार बनाने हेतु पंचास्तिकाय की टीका में टीकाकार जयसेन और बालचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट शिवकुमार महाराज के शिवमृगेश वर्म होने की संभावना प्रकट करते हुए लिखा है- "शक सं० ५०० में कीर्ति नामक चालुक्य वंशी राजा ने बादामी में कदम्बवंश के राज्य का अन्त किया इससे यह निश्चित होता है कि शक सं० ४५० में शिवमृगेशवमं राज्य करते थे । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये पंचास्तिकाय की रचना की, इस प्रकार का उल्लेख टीकाकार जयसेनाचार्य और बालचन्द्र ने किया है । वे शिवकुमार महाराज वस्तुतः शिवमृगेशवर्म ही जान पड़ते हैं । श्रतः कुन्दकुन्दाचार्यं. का समय भी उनके शिवमृगेशवमं के समकालीन होने के कारण शक सं० ४५०, तदनुसार वि० सं० ५८५ सिद्ध होता है ।"
यह तो पहले सिद्ध किया जा चुका है कि जयसेनाचार्य से लगभग २०० वर्ष पहले हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा पंचास्तिकाय प्रादि की अपनी टीका में शिवकुमारं महाराज और प्राचार्य कुन्दकुन्द का किसी प्रकार का उल्लेख न किये जाने के फलस्वरूप जयसेनाचार्य तथा बालचन्द्र द्वारा किया गया उपर्युद्धत उल्लेख प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । ऐसी दशा में जयसेनाचार्य तथा बालचन्द्र द्वारा किये गये उक्त उल्लेख पर तो विश्वास नहीं किया जा सकता। हां, अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के प्राधार पर श्री पाठक ने शिवमृगेशवर्म और प्राचार्य कुन्दकुन्द के सम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org