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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण
७६३ का समाधान करते हुए कहा गया है कि इस सूत्र से इस बात का ज्ञान नहीं हो सकता था कि जगतश्रेणी के असंख्यातवें भाग रूप श्रेणी का प्रमाण असंख्यात करोड़ योजन है। इस पर पुनः शंका की गई है कि इस बात का ज्ञान तो परिकम से ही हो जाता है, ऐसी दशा में सूत्र में इस कथन की क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि इस सूत्र के बल अर्थात् प्राधार से ही तो 'परिकर्म' की प्रवृत्ति हुई है।
__प्राचार्यों से संबंधित इन्द्रनन्दि द्वारा श्रुतावतार में उल्लिखित विवरण को पढ़ने के पश्चात् यह स्पष्ट आभास होता है कि माघनन्दी और धरसेन के बीच तथा जिनपालित एवं कुन्दकुन्द के बीच में और भी अनेक प्राचार्य हुए होंगे और उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार की सूचना उपलब्ध न हो सकने के कारण इन्द्रनन्दि उन प्राचार्यों के क्रम, नाम, संख्या आदि का उल्लेख नहीं कर पाये। . वस्तुतः हरिवंश पुराण में उल्लिखित और इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार द्वारा समर्थित उपरिवरिणत तथ्यों की ओर ध्यान न आने के कारण ही डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार प्रवचनसार पर प्रस्तावना लिखते समय धवला में विद्यमान परिकर्म के विपुल उल्लेखों एवं उद्धरणों की ओर डॉ० उपाध्ये का ध्यान नहीं गया, उसी प्रकार हरिवंश पुराण में उल्लिखित उपयुक्त तथ्यों की ओर भी ध्यान नहीं गया है। घवला के प्रकाशित होने के पश्चात् उन्होंने अपमा अभिमत बदल दिया है।'
पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार एवं श्री नाथूरामजी प्रेमी ने प्रा० कुन्दकुन्द के समय पर अपने विचार प्रस्तुत करते समय डॉ० ए० एन० उपाध्ये की तरह इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में उल्लिखित तथ्यों की उपेक्षा तो नहीं की है पर हरिवंश पुराण में उल्लिखित लोहाचार्य से संघविभाजन तक की प्राचार्य परम्परा की ओर संभवतः उनका ध्यान नहीं गया है, जिसके परिणाम स्वरूप, यद्यपि इन्द्रनन्दि ने अपने सम्पूर्ण श्रुतांवतार में एक ही काल में हुए एक से अधिक प्राचार्यों का कहीं एक साथ उल्लेख नहीं किया है, फिर भी श्लोक सं० ८४ की शब्द-रचना पर ऊहापोह करते हुए यह अनुमान लगाया कि विनयधर मादि चार पारातीय मुनि समकालीन थे और उनका सम्मिलित काल २० वर्ष हो सकता है। यदि इन दोनों विद्वानों का ध्यान हरिवंश पुराण, सर्ग ६६ के श्लोक संख्या २५ की ओर जाता तो वे बहुत संभव है इन चारों प्राचार्यों को-एक के पश्चात् एक-अनुक्रमशः हुए प्राचार्य मानकर इन चारों का काल २० के स्थान पर ८० वर्ष अनुमानित करते और इस प्रकार इनके पश्चात् हुये प्राचार्य प्रहंदुबलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७५३ के बीच का अनुमानित करते। . 'कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, प्रस्तावना, पृ० १३
थी जिनेन्द्रवर्णी ने भी मुख्तार सा. के इस.मनुमान के मापार पर अपने चैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग के पृष्ठ ३३२ पर इनको समकामीन मानते हुए इन चारों का सम्मिलित काल २० वर्ष दिया है।
-सम्पादक
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