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जंन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति एक प्रकार का गहरा संदेह उत्पन्न कर देता है कि जिन-जिन ग्रन्थों को प्राचार्य कुन्दकुन्द की कृति बताया जा रहा है, उनमें से वस्तुतः कौन-कौन से ग्रन्थ प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा लिखे गये हैं।
पंचास्तिकाय प्राभृत की गाथा संख्या २ और १७३ को ध्यानपूर्वक ढ़प लेने के पश्चात् यह तथ्य स्वतः ही प्रकट हो जाता है कि श्री जयसेन एवं अध्यात्मी बालचन्द्र द्वारा अपनी-अपनी टीकानों में किया गया शिवकुमार महाराज का उल्लेख पूर्णतः उनकी स्वयं की निराधार कल्पना मात्र है। उस कल्पना में कोई तथ्य नहीं। .
.पंचास्तिकाय की दूसरी गाथा में ग्रन्थकार ने निम्नलिखित प्रतिज्ञा की है:
"श्रमण (भगवान् महावीर) के मुख से प्रकट हए, चारों गतियों का अन्त करने वाले एवं मोक्षप्रदायी अर्थपूर्ण समस्त श्रुत को प्रणाम कर मैं इस (पंचास्तिकाय ग्रन्थ) का कथन करूगा, उसे सुनो।"
अपनी प्रतिज्ञानुसार पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र का कथन समाप्त करने के पश्चात् अन्त में ग्रन्थकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
मग्गपभावण8, पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं, पंचत्थियसंगहं सुत्तम् ।।१७३॥
प्रर्थात् - प्रवचन की भक्ति से प्रेरित हो जिन-मार्ग की प्रभावना हेतु मैंने प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकाय संग्रह सूत्र का कथन किया है। . . - ऐसा विचित्र उदाहरण तो संभवतः साहित्य के इतिहास में अन्यत्र खोजने पर भी नहीं मिलेगा । ग्रन्यकार जहां स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि प्रवचन के प्रति अपनी भक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने जिनशासन को प्रभावनार्थ इस ग्रन्थ का कथन किया है, वहां इसके विपरीत टीकाकार का यह कथन किसी भी दशा में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि शिवकुमार महाराज को प्रतिबोष देने हेतु कुन्दकुन्दाचार्य ने इस ग्रन्थ की रचना की। जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका में प्राचार्य कुन्दकुन्द को कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव का शिष्य बताया है। अन्य किसी प्रमाण से इसकी पुष्टि न होने तथा सिदान्तदेव की उपाधि के विशेष प्राचीन न होने के कारण दिगम्बर परम्परा के विद्वान, जयसेन द्वारा किये गये उल्लेख की, प्रामाणिकता की कोटि में गणना नहीं करते।
संस्कृत टीकाकार जयसेन एवं कन्नड़ टीकाकार बालचन्द्र द्वारा पंचास्तिकायप्राभृत की टीकामों में किया गया 'शिवकुमार महाराज' का उल्लेख ही जब काल्पनिक और प्रप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है तो उस दशा में शिवमृगेशवर्म, पल्लवनरेश शिवस्कन्ध अथवा युवा महाराजा को कुन्दकुन्द का समकालीन मान 'कुन्दकुन्द प्राभूतसंग्रह (जीवराज जैन ग्रन्थमाला ९) की प्रस्तावना, (५० कलाशचन्द्र)
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. Introductory on Pravachansara, by, Dr. A. N. Upadhye, p. 10-14
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