________________
७५८
जैन धर्म का मोलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति छोड़ कर शेष किसी भी ग्रन्थ के मूल पाठ में इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, जिससे यह सिद्ध होताहो कि अमुक ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की रचना है। यही नहीं, प्राचार्य कुन्दकुन्द की कृति माने जाने वाले किसी एक भी ग्रन्थ के मूल पाठ में कहीं किंचित्मात्र भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं है कि अमुक ग्रन्थ की, किसी अमुक व्यक्ति को, शिवकुमार को अथवा शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिये रचना की गई।
. ईसा की १० वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र' ने प्रवचनसार की तात्पर्य वृत्ति में न तो प्रवचनसार के प्रणयनकार का ही कोई उल्लेख किया है और न यही लिखा है कि अमुक व्यक्ति को प्रतिबोध देने के लिये इस ग्रन्थ की रचना की गई। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की १० वीं शताब्दी तक निश्चित रूपेण किसी को यह ज्ञात नहीं था कि इस ग्रन्थ के कर्ता कौन हैं
और इसकी रचना किसको बोध देने के लिये की गई है । ईशवन्दन एवं अनेकान्तवाद की जयकार के साथ प्रवचनसार की वृत्ति करने का अपना उद्देश्य प्रकट करने के अनन्तर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है :
"अथ खलु कश्चिदासन-संसारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमितसमस्तकान्तवादविद्याभिनिवेशः परमेश्वरीमनेकान्तविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रहतयात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा पुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठिप्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायकपुरःसराम् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्ग संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते ।"
इसका सारांश यह है कि- निकट भविष्य में मुक्त होने वाला कोई भव्य अपने अन्तर में विवेक की ज्योति के प्रकट होने तथा उसके फलस्वरूप एकान्तवाद के समस्त मिथ्याभिनिवेशों की समाप्ति के साथ ही अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार एवं समस्त मिथ्या पक्षों का परित्याग कर मध्यस्थ हो परम सत्य मोक्ष सुख को ही उपादेय के रूप में चुन कर समस्त तर्थंकरों को वन्दनपूर्वक समस्त प्रारम्भ समारम्भों से निवृत हो मुक्तिप्रदायी श्रमणत्व को स्वीकार करते हुए प्रतिज्ञा करता है।
उस आसन्न भव्य की प्रतिज्ञा ने ही प्रवचनसार ग्रन्थ का रूप धारण कर लिया। अमृतचन्द्र ने, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उस पासान भव्य का कोई नामोल्लेख नहीं किया है ।
प्राचार्य अमृतचन्द्र से लगभग २०० वर्ष पश्चात (ईसा की १२ वीं शताब्दी में) हुए जयसेन ने प्रवचनसार पर निर्मित अपनी तात्पर्यवृत्ति में प्राचार्य : * Introduction on Pravachansar, by Dr. A. N. Upadhye, p. 101
प्रवचनसार, A. N. उपाध्ये द्वारा संपादित (रामचन्द्र जैन शास्त्र माला), पृ. २ I Introduction on Pravachansar by A. N. Upadhye, p. 104.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org