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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति के उपरिचचित शिलालेख के प्राचार्यों के क्रम सम्बन्धी तथ्य अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं, तथा हरिवंश पुराण एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में दी हुई पट्टावलियों के प्राधार पर प्रहंबील का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ के बीच का एक तरह से मुनिश्चित हो जाता है, तो उस दशा में प्रहंद्वलि से पर्याप्त रूपेण पश्चाद्वर्ती कुन्दकुन्दाचार्य के काल का प्रश्न एक जटिल समस्या के रूप में विद्वानों के समक्ष उपस्थित होता है। यह देख कर तो और भी बड़ा आश्चर्य होता है कि पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य वीर सेन ने धवला में, पुन्नाट संघीय जिनसेन ने हरिवंश पुराण में पौर वीर सेन के शिष्य जिनसेन (पंचस्तूपान्वयी) ने जय-धवला में दिगम्बर परम्परा के उद्भट विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य का कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है।
कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में निम्नलिखित एक अज्ञातकर्तृक श्लोक बड़ा प्रसिद्ध है :
वर्षे सप्तशते चैव, सप्तत्या च विस्मती।
उमास्वामिमुनिर्जातः, कुन्दकुन्दस्तथैव च ॥' प्रर्थात् - ७७० वर्ष व्यतीत हो चुकने पर उमास्वामी और (प्राचार्य) कुन्दकुन्द हुए । श्लोक में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि यह ७७० सम्वत् वस्तुत: वीर नि० सं० है, विक्रम संवत् है, शक सं० है अथवा अन्य कोई संवत् । यही नहीं, इसमें कुन्दकुन्द के पश्चाद्वर्ती प्राचार्य उमास्वामी के अनन्तर प्राचार्य कुन्दकुन्द का नाम देते हए इन दोनों को स्पष्टतः समकालीन बताया गया है। इसके साथ ही साथ यह श्लोक कहां का है, किसकी तथा किस समय की रचना है, ये सब तथ्य भी अंधकार में छुपे हुए हैं। अतः विद्वानों द्वारा इस श्लोक को कुन्दकुन्दाचार्य के कालनिर्णय के सम्बन्ध में न तो विशेष प्रामाणिक ही समझा जा रहा है और न कोई महत्व ही दिया जा रहा है।
' कतिले बस्ती के एक स्तम्भ-लेख (लेख सं० ५५, लगभग शक सं० १०२२) में कुन्दकुन्द को ही निम्नलिखित श्लोक द्वारा मूल संघ का प्रादि गरणी बताया गया है:
श्रीमतो वर्द्धमानस्य, वर्द्धमानस्य शासने ।
श्री कोण्डकुन्दनामाभूत्, मूल संघापणी गरणी ॥३॥ इसी प्रकार लेख सं० ५४ (शक सं० १०५०), ४० (शक सं० १०५५) और लेख सं० १०८ (शक सं० १३५५) में गौतम के उल्लेख के पश्चात् उनकी संतति में भद्रबाह, चन्द्रगुप्त के अनन्तर उन्हीं के अन्वय में कुन्दकुन्द मुनि के होने का उल्लेख किया गया है। प्राचार्य परम्परा के सम्बन्ध में इन सब परस्पर
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' स्वामी समन्तभद्र, पं० जुगल किशोर, पृ० १४७ २ जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ११५ 3 जन शिलालेख संग्रह, भा०१
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