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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि• ग० भ्रान्ति हरिवंश पुराण और श्रुतावतार के उल्लेखों के प्राधार पर यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए अंतिम भाचारांगधर लोहार्य के पश्चात् पोर लगभग वीर नि० सं०७६३ से ७८३ तक प्राचार्य पद • पर रहे प्राचार्य अहंद्वलि से पूर्व क्रमशः विनयंघर प्रादि चार प्राचार्य हुए। इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार तथा प्रज्ञातकर्तक नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में प्रहद्वलि के पश्चात् क्रमशः माघनन्दी धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन चार प्राचायों के होने का उल्लेख है।
नन्दी संघ की पट्टावली में भी कुन्दकुन्दाचार्य की गुरुपरम्परा निम्न रूप में उल्लिखित है :
भद्रबाहु
गुप्तिगुप्त .
माघनन्दि
जिनचन्द्र
कुन्दकुन्द . इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में सुस्पष्ट रूप से लिखा है कि षट्सण्डागम और कषाय-प्राभूत का ज्ञान गुरु परिपाटी से पद्मनन्दी मुनि को कुण्डकुन्दपुर में प्राप्त हमा प्रौर उन्होंने षटखण्डागम के प्राद्य तीन खण्डों पर १२,००० श्लोक परिमारण की परिकर्म नामक टीका की रचना की।
इस प्रकार हरिवंश पुराण, इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार, नन्दी संघ की प्राकृत पावली-इन तीनों ग्रन्थों के उल्लेखों से अहंद्वलि निश्चित रूपेण कुन्दकुन्दाचार्य के प्रगुरु (दादागुरु) माघनन्दि से पूर्ववर्ती प्राचार्य सिद्ध होते हैं।
नन्दी संघ की पट्टावली में सर्वप्रथम भद्रबाह (द्वितीय) और उनके पश्चात् गुप्ति गुप्त का नाम दिया है पर इस पट्टावली से विद्वान् यही निष्कर्ष निकालते हैं कि माघनन्दी ही वस्तुतः नन्दी संघ के प्रथम प्राचार्य, उनके शिष्य जिनचन्द्र और जिनचन्द्र के शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य हुए।
ऐसी स्थिति में सिद्धरबस्ती के उपरिलिखित स्तम्भलेख में कुन्दकुन्द के पश्चात् उनकी वी पीढ़ी में प्रतिलि को, दशवीं पीढ़ी में पूष्पदन्त-भूतबलि को और १२वीं पीढ़ी में माघनन्दी को बताया गया है, उसे किस प्रकार प्रामाणिक माना जा सकता है, यह इतिहास के विद्वानों के लिये विचारणीय है। वस्तुतः ये चारों प्राचार्य कुन्दकुन्दाचार्य के पूर्वज हैं। हरिवंश पुराण सिद्धरबस्ती के उपरिलिखित लेख संख्या १०५ से ६१५ वर्ष पूर्व लिखा गया था। इसी प्रकार इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार की रचना भी इस लेख से लगभग २५० वर्ष पूर्व की भी
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