Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 882
________________ ७५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि... प्रान्ति भाचार्य-परम्परा की प्रामाणिक पट्टावली में पुष्पदन्त को धरसेन की परम्परा का उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता। घरसेन पुष्पदन्त मोर भूतबलि किस संघ की परम्परा के प्राचार्य अथवा मुनि थे, इस प्रश्न का समाधान करने वाला एक भी ठोस.प्रमाण दिगम्बर परम्परा के साहित्य में उपलब्ध नहीं है। . धरसेन नामक एक तपोधन प्राचार्य का उल्लेख पुत्राट संघ की पट्टावली में अवश्य विद्यमान है' पर वे पहंदुद्वलि के पश्चात् १३वें पट्टधर प्राचार्य बताये गये हैं। संयोगकी बात है कि इन्द्रनन्दि ने धरसेन को महातपा के विशेषण से और जिनसेन ने तपोधन के विशेषण से संबोधित किया है। किन्तु श्रुतावतार में परिणत महातपा धरसेन को मार हरिवंश पुराण में उल्लिखित तपोषन धरसेन को एक मानने में दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी विद्वानों को बहुत बड़ी मापत्ति होगी। क्योंकि हरिवंश पुराण में लोहार्य के पश्चात् ६२७ वर्षों में हुए ३१ माचार्यो में प्राचार्य धरसेन का स्थान १८वां है। ३१ प्राचार्यों में ६२७ वर्ष के समय को मोटे तौर पर विभाजित किया जाय तो प्रत्येक प्राचार्य का प्राचार्य-काल २० वर्ष फलित होता है। इस प्रकार वीर नि० सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए लोहार्य के पश्चात् १८३ पाचार्य धरसेन का समय (१८ प्राचार्यों के ३६० वर्षों को ६८३ में जोड़ने पर) वीर नि० सं०१०४३ सिद्धहोता है । षटाण्डागम के निर्माता पुष्पदन्त एवं भूतबलि के गुरु धरसेन का समय वीर नि० सं० १०२३ से १०४३ स्वीकार करने के लिये संभवतः दिगम्बर परम्परा का कोई विद्वान् तैयार नहीं होगा। मूलतः धवला, जयधवला, तिलोयपण्यत्ति मौर उत्तरपुराण तथा तदनन्तर हरिवंश पुराण एवं श्रुतावतार के उल्लेखानुसार ग्रहद्वलि का काल वीर नि० सं०७६३ से ७५३ के लगभग निर्णीत हो जाने पर प्राचार्य कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में अग्रेतर विचार करना परमावश्यक हो जायगा। क्योंकि लोहाचार्य से पश्चाद्वर्ती प्राचार्य-परम्परा का पट्टावलियों, शिलालेखों मादि में जो उल्लेख किया गया है, वह प्रायः एक प्रकार से अपूर्ण और प्राचार्यों के क्रम की दृष्टि से परस्पर विरोधी है। सिदर वसति के शक सं० १३२० के लेख संख्या १०५ में तथा अन्य अनेक शिलालेखों में लोहाचार्य के पश्चात् कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा उटैंकित की हुई मिलती है। उनमें लोहाचार्य प्रौर कुन्दकुन्दाचार्य के मध्यवर्ती प्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं है। केवल शक सं० १३२० के सिर वसति के लेख सं० १०५ में लोहाचार्य के पश्चात हए प्राचार्यों की कुन्दकुन्दाचार्य तक नामावली और तदनन्तर कुन्दकुन्दाचार्य की शिष्य परम्परा में हुए प्राचार्यों की नामावली दी गई है, जो इस प्रकार है :१. कुम्भ २. विनीत ३. हलघर ४. वसुदेव ५. प्रचल . ६. मेरुधीर ७. सर्वज्ञ ८. सर्वगुप्त ६. महीधर १०. धनपाल ११. महावीर १२. वोर १३. कोण्डकुन्द ' "तपोषन : श्री धरसेन नामक:"-हरिवंश पु., सगं ६६, श्लोक २८ २ श्रुतावतार (इन्द्रनन्दिकृत), श्लोक १०३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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