Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 885
________________ काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७५५. क्योंकि इन्द्रनन्दि इतिहासज्ञों द्वारा विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ के प्राचार्य माने गये हैं।' दिगम्बर परम्परा के गग्य-मान्य विद्वानों ने बड़े खेद के साथ इस प्रकार के उद्गार अभिव्यक्त किये हैं कि अंगधारियों के पश्चाद्वर्ती काल की दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्यों को जितनी परम्पराएं उपलब्ध हैं, वे सब अपूर्ण हैं और उस समय संग्रह की गई हैं, जब मूल संघ प्रादि भेद हो चुके थे और विच्छिन्न परम्पराओं को जानने का कोई साधन नहीं रह गया था। जिस प्रकार मथुरा के कंकाली टोले की तीन बार की गई खुदाई में कुषाण सं० ५ से १८ (ई० सन् ८३ से १७६) तक के ऐसे लेख मिले हैं, जिनमें उन ३ गणों, १२ कुलों और १० शाखाओं के नाम उकित हैं, जो कि श्वेताम्बर परम्परा के पागम - कल्पसूत्र में उल्लिखित हैं, तथा नन्दीसूत्रान्तर्गत वाचकवंश के प्राचार्यों की पट्टावली के आर्य समुद्र, आर्य मंगु, आर्यनन्दिल, आर्य नागहस्ती तथा प्रार्य भूतदिन के नाम भी कंकाली टीले से प्राप्त लेखों में उकित मिले हैं,3 उसी प्रकार यदि दिगम्बर-परम्परा के प्राचार्यों, गणों, गच्छों आदि के उल्लेख भी उपलब्ध हुए होते तो दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के क्रम एवं काल को सुनिश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती। पर कंकाली टीले से दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों के सम्बन्ध में कोई अभिलेख नहीं मिला। श्री माणिकचन्द्र - दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित "जैन शिला. लेख संग्रह के तीनों भागों के समीचीनतया पर्यालोचन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अंगधारियों के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा की एक भी पूर्ण पट्टावली उपलब्ध नहीं है । डॉ० हीरालालजी एवं पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' के शब्दों में सब अपूर्ण हैं। ऐसी स्थिति में जबकि अंगधारियों के उत्तरवर्ती काल के दिगम्बर प्राचार्यों की एक भी पूर्ण पट्टावली उपलब्ध नहीं होती; दिगम्बर परम्परा के कतिपय प्रामाणिक ग्रन्थों एवं नन्दी संघ की पट्टावली में उपलब्ध तथ्यों से श्रवणबेल्गोल ' (क) जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार (फतेचन्द बेलानी) पृ० ११ । (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १, पृ० ३३८, कम सं० २१४ २ (क)... इस प्रकार महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष व्यतीत हुए थे। बहुत से लेखों में भागे के प्राचार्यों की परम्परा कुन्दकुन्दाचार्य से ली गई है। दुर्भाग्यतः किसी भी लेख में उपयुक्त श्रुतमानियों पोर कुन्दकुन्दाचार्य के बीच की पूरी गुरु-परंम्परा नहीं पाई जाती । केवल उपयुक्त लेख नं. १०५ (शक सं० १३२०) में ही इस बीच के प्राचार्यों के कुछ नाम पाये जाते हैं.... .. [जैन शिलालेख संग्रह, भा० १, भूमिका (गे. हीरालाल), पृ० १२७-१२८] (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में अंगपारियों के बाद की जितनी परम्पराएं उपलब्ध है, वे सब अपूर्ण हैं और उस समय संग्रह की गई हैं जब मूल संघ प्रादि भेद हो चुके थे और विच्छिन्न परम्परामों को जानने का कोई साधन न रह गया था। [स्व. श्री नापूराम प्रेमी, भगवती माराधना की प्रस्तावना] 3 जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, प्रस्तावना (गे. गुलाबचन्द पौधरी), पृ. १६-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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