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जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि. ग. प्रान्ति
२५. सुभद्र
माचारांगधर ] २६. यशोभद्र
समुच्चय काल २७. यशोबाह २८. लोहार्य
११८ वर्ष
पूर्ण योग ६८३ वर्ष २६. विनयंधर अंग-पूर्व के
२० वर्ष (अनुमानतः) एक देशधर ३०. गुप्तऋषि ३१. गुप्तश्रुति ३२. शिवगुप्त ३३. अहंदुबलि'
२० ॥ योग १००
पूर्ण योग . ७८३ अहंबलि के पश्चात् हरिवंशपुराण में वीर नि० सं० १३१० तक की प्रविच्छिन्न प्राचार्य परम्परा दी है, वह पुन्नाट संघ की प्राचार्य-परम्परा प्रतीत होती है। यह तथ्य विचारणीय है कि हरिवंश पुराणकार ने इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया है कि पुनाट संघ के प्रवर्तक प्रथम प्राचार्य कौन हुए। हरिवंश पुराण के ६६३ सर्ग के ३१वें श्लोक में पुराणकार ने अमितसेन को पवित्र पुन्नाट गण का अग्रणी प्राचार्य बताया है। इसका अर्थ यही हो सकता है कि वे पुत्राट संघ के एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य थे, न कि मूल पुरुष । पुनाट संघ के प्रथम प्राचार्य तो अनुमानतः मन्दरार्य ही होने चाहिए जो कि मूल संघ का विभाजन करने वाले अर्हबलि के पश्चात् इस पट्टावली में बताये गये हैं।
यह पहले बताया जा चुका है कि अर्हबलि (वीर नि० सं० ७६३-७८३) ने दिगम्बर संघ को १० संघों में विभाजित किया। उन संघों में से अधिकांश.के . नाम तो ग्राज केवल पत्रों पर ही अवशिष्ट रह गये हैं। कालान्तर में उपरोक्त संघों के अतिरिक्त और भी कई संघ समय-समय पर उत्पन्न हुए तथा उनमें से भी अनेक संध विलुप्ति के गहन गह्वर में विलीन हो गये। ऐसी स्थिति में प्रहंबलि . के उत्तरवर्ती काल की मूल संघ की कोई एक सर्व-सम्मत प्राचार्यपरम्परा की पट्टावली प्रस्तुत करना संभव प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इस प्रकार की कोई प्रामाणिक एवं अविच्छिन्न पट्टावली कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में अहंद्बलि के पश्चात् जिन ४ प्राचार्यों के नाम दिये हैं, उन्हीं के ' हरिवंश पुराण, सर्ग ६६, श्लोक २५
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