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जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति ने दिगम्बर परम्परा के परम प्रामाणिक माने जाने वाले धवला जैसे प्राचीन ग्रन्थों के एतद्विषयक उल्लेखों के प्रति प्रगाढ़ आस्था को झकझोर कर न सही, पर थोड़ा हिलाकर अनेक नवीन उलझनें उत्पन्न कर दी हैं और कतिपय विद्वानों द्वारा इसको प्रश्रय दिये जाने के कारण प्राचार्यों के काल के प्रश्न को लेकर एक बड़ी अजीब संशयात्मक स्थिति जनमानस में व्याप्त हो गई है। माज के युग के उच्च कोटि के विद्वानों के एतद्विषयक अभिमत को पढ़ कर प्रबुद्ध जनमानस ईहापोह करने लगा है कि आज से लगभग १२०० वर्ष पूर्व तपोपूत महात्माओं द्वारा प्राचीन ग्रन्थों में प्राचार्यों का जो कालक्रम लिखा गया है, उसे प्रामाणिक माना जाय अथवा आज के युग के कतिपय विद्वानों द्वारा प्रश्रय प्राप्त तथाकथित "नंदीसंघ की प्राकृत पट्टावली" के उल्लेखों को, जिसके कि न तो लेखक का ही कोई पता है और न लेखनकाल ही का।
_____ इस उलझन भरी जटिल ऐतिहासिक गुत्थी को प्रमाण पुरस्सर सुलझाने का प्रयास किया जाय, एक मात्र इसी सदुद्देश्य से. प्रेरित होकर यहां इस प्रश्न पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के ही अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों के उद्धरण इस दृष्टि से प्रस्तुत किये गये हैं कि पाठकों एवं शोधार्थियों को एक ही स्थान पर पूरी आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो जाय और उन्हें विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों को प्राप्त करने के प्रयास में समय एवं श्रम व्यर्थ ही व्यय न करना पड़े। ऊपर जो ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत की गई है, उसमें "हरिवंश पुराण" के उल्लेखों का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि उनमें वीर नि० सं० १ से १३१० तक की प्राचार्य परम्परा का अविच्छिन्न रूप से उल्लेख है। इसमें उल्लिखित, वीर नि० सं०६८३ में दिवंगत हुए लोहार्य तक की प्राचार्य परम्परा धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, तिलोय पण्णत्ती, जम्बूदीव पण्णत्ती के आदि में दी हुई श्रुतधर पट्टावली, इन्द्रनन्दीकृत श्रृतावतार तथा अनेक पट्टावलियों एवं शिलालेखों द्वारा पूर्ण रूपेण समर्थित है। नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को अनेक प्रमाणों एवं तर्क संगत तथ्यों द्वारा पूर्णतः अप्रामाणिक और अविश्वसनीय सिद्ध किया जा चुका है। इस पट्टावली के अतिरिक्त अन्यत्र कोई एक भी उल्लेख (लोहार्य के समय वीर नि० सं०६८३ तक)हरिवंश पुराण के विपरीत उपलब्ध नहीं होता। .ऐसी स्थिति में लोहार्य के अंतिम आचारांगधर होने तथा उनके समय वीर नि० सं० ६८३ की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में किंचित्मात्र भी संदेह के लिये स्थान नहीं रह जाता।
लोहार्य के पश्चात् वीर नि० सं० ६८३ से अनुमानतः ७८३ तक, संघ विभाजन से पूर्व की प्राचार्य परम्परा का जो उल्लेख हरिवंश पुराण में किया गया है, वह इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार द्वारा (दो प्राचार्यों के नाम विभेद के साथ) समर्थित है। उपरिलिखित अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों में लोहार्य के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में हरिवंश पुरागा में लोहार्य के पश्चात् अनुक्रमशः हुए विनयंधर, गुप्तश्रुनि, गुप्तऋपि, शिवगुप्त पार
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