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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग• भ्रान्ति में एकादशांगधारियों का १२३ वर्ष का काल और दश-नव-अष्टांगधारियों का १७ वर्ष का काल बता चुकने के पश्चात् गाथा संख्या १४ द्वारा पुनः दश, नव तथा
आठ अंगधारियों का काल ६७ वर्ष के स्थान पर २२० वर्ष बताते है । यहां पट्टावलीकार द्वारा वस्तुतः बड़ी भारी भूल हो गई है। गाथा की शब्दयोजना पर विचार करने की दशा में यह गाथा टिपूर्ण और नितान्त अशुद्ध प्रतीत होती है । गाथा के पूर्वार्द्ध में दी हुई संख्या ६+१८+२३+५२ (५०) का योग ६६ और १७ आता है पर गाथा के उत्तरार्द्ध में दश, नव तथा पाठ अंगधारियों का काल २२० वर्ष बीतने तक बताया गया है। पूर्वापर सम्बन्ध की खींच तान से तो इस गाथा का अर्थ येन केन प्रकारेण यह लगाया जा सकता है कि २२० वर्षों में एकादशांगधर तथा दंश-नव-अष्टांगधर हुए, पर गाथा की शब्द रचना से तो गाथा का सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि इसमें दश-नवअष्टांगधरों का काल २२० वर्ष बताया गया है। इस अप्रासंगिक, अनावश्यक एवं सदोष उल्लेख को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस पट्टावलीकार के समक्ष एकादशांगधरों का २२० वर्ष का काल बताने वाली अनेक पट्टावलियां विद्यमान थीं। उनमें से हरिवंश पुराणान्तर्गत पट्टावली का - "द्वये च विशेऽङ्गभूतोऽपि पंच ते" तथा जय धवला का - "तदो तमेकारसंग सुदरणारणं जयपाल-पांडु-धुवसेएकंसोत्ति पाइरिय परम्पराए वीसुत्तर बेसद वासाइमागंतूण वोच्छिण्णं ।" यह पद एवं श्रुतावतार के निम्नलिखित पद पट्टावलीकार के कर्णरन्ध्रों में गूंजते रहे :
एते पंचापि ततो बभूवुरेकादशांगधराः । विशत्यधिकं वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या ।।८।।
उन पदों की छाप जो नन्दीसंघ प्राकृतः पट्टावलीकार के मस्तिष्क में थी, वह अनावश्यक एवं अप्रासंगिक होते हए भी इस पड़ावली की गाथा संख्या १४ में "दस नव अटुंगधरा, वास दुसदवीस सधेसु" के रूप में उतर आई । अन्यथा "वास दुसदवीस सधेसु" यह चरण इस गाथा में किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं जंचता । यह पद ही इस बात का साक्षी है कि यहां हेर फेर के रूप में कुछ गड़बड़ की गई है किन्तु वास्तविकता इस चतुर्थ चरण के रूप में अपना चिन्ह छोड़ गई है।
यही नहीं, अपितु इस नन्दीसंघ की प्राकृत पावली के प्रणेता ने भावी पीढ़ियों को एक बड़ी उलझन में भी डाल दिया है । गाथा सं० १२ के उत्तरार्द्ध से १४ वीं गाथा तक सुभद्र आदि । प्राचार्यों को दश, नव, पाठ अंगों का धारक तो वताया है, पर यह स्पष्ट नहीं किया है कि वे चारों ही प्राचार्य उपरोक्त तीनों ही अंगों के धारक थे अथवा इनमें में विभिन्न अंगों के। यदि वे विभिन्न अंगों के धारक थे तो कौन-कौन से प्राचार्य किस-किस अंग के धारक थे? उपरिचित गाथाओं में प्राचार्यों की संख्या ४ और अंगों की संख्या तीन ही है अतः चारों हो पाचार्यों को उपरोक्त तीनों अंगों का समान रूप से धारक माना जाय, उस दशा में तो ठीक है किन्तु उन चारों प्राचार्यों में से प्रत्येक को उपरोक्त तीनों अंगों में से पृथक-पृथक
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