Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 874
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति १६ गाथाओं की इस छोटी सी पट्टावली में काल - गरगना में गणित की दृष्टि से दो स्थानों पर इस प्रकार की त्रुटियां की गई हैं कि इतिहास के विशेषज्ञों को ११ दशपूर्वघरों में से किसी एक महापुरुष की आयु को २ वर्ष बढ़ाने तथा दशनवाष्टांगघरों में से किसी एक महामुनि की श्रायु को २ वर्ष घटाने का प्रयास करना पड़ रहा है, क्योंकि इन दोनों वर्गों के प्राचार्यों का जो पृथक्-पृथक् काल दिया गया है, वह पिण्ड रूप में दिये गये उनके काल से मेल नहीं खाता । ' ७४४ - इस पट्टावली की गाथाओं पर भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी विचार किया जाय तो ये सदोष ही सिद्ध होंगी। इसकी गाथा संख्या २ के तृतीय चरण में प्रयुक्त 'रहियो' शब्द प्राकृत भाषा की शब्दावली में 'रहा' - इस अर्थ में कहीं देखने में नहीं आया । प्राकृत भाषा में 'रहिम्रो' शब्द का प्रयोग पार्थक्य अथवा घटाने के अर्थ में होता है। हाँ, डिंगल, राजस्थानी- गुजराती, अपभ्रंश एवं कतिपय देशज भाषाओं में 'रहियो' शब्द का प्रयोग 'रहा' के अर्थ में होता है। इसके अतिरिक्त गाथा संख्या १३ में चार बार 'च' शब्द का प्रयोग किया गया है जो खटकने के साथ-साथ इस बात का द्योतक है कि पट्टावलीकार का भाषा पर पूर्णाधिकार नहीं था । इस पट्टावली को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर एक बात बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है कि पट्टावलीकार को जहां परम्परागत मान्यता और प्राचीन ग्रन्थों से विपरीत बात कहनी थी, वहां उसने जिनागम और जिनकथन की दुहाई दी है । सभी प्राचीन ग्रन्थों द्वारा समर्थित यह परम्परागत मान्यता रही है कि ६८३ में अंतिम प्राचारांगंधर लोहार्य स्वर्गस्थ हुए। इसके विपरीत लोहार्य को आठ अंगों के धारक और वीर नि० सं० ५६५ में स्वर्गस्थ हुए सिद्ध करने के लिये पट्टावलीकार ने गाथा संख्या १३ में - " लोहाचय्य मुणीसं च, कहिथं च जिरणागमे" इस गाथार्द्ध द्वारा अपने अभिमत पर जिनागम की छाप लगाने का प्रयास किया है। इसी प्रकार लोहाचार्य के पश्चात् प्रनुक्रमशः हुए विनयंधर आदि चार प्राचार्यों को अपनी पट्टावली में स्थान न देकर ८० वर्ष के प्राचार्यकाल को ऊपर ही ऊपर उड़ाने का प्रयास करते हुए जहां अंग पूर्व के एक देशधर अलि, माघनंदी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि इन ५ प्राचार्यों को आचारांगधर सिद्ध करने एवं भूतबलि का ६८३ में स्वर्गस्थ होना तथा उनके साथ ही अंग विच्छेद होने की बात सिद्ध करने का प्रयास किया है, वहां पर भी पट्टावलीकार ने लिख दिया है कि जिनेन्द्र भगवान् ने इस प्रकार कहा है :अहिवल्लि माघनंदि य धरसेरा पुप्फयंत भूदबली । अडवीसं इगवीस उगणीसं तीस वीस वास पुगो ।। १६ ।। इगसय अठारवासे दसंगधारी य मुणिवरा जादा । छ सय तिरा सिय- वासे रिव्वारणा अंगच्छिति कहिय जिणे ।। १५ ।। वस्तुतः : वास्तविक स्थिति यह है कि किसी जिनागम में अथवा दिगम्बर परम्परा के किसी ग्रन्थ में एक पंक्ति तो क्या एक शब्द भी इस प्रकार का उपलब्ध लिये प्रस्तुत ग्रन्थ का पृष्ठ ७३७ 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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