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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमणं
७४३ संघ को प्राकृत पट्टावली में प्राचार्यों एवं श्रुतपरम्परा की अवस्थिति के सम्बन्ध में उल्लिखित 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' इस लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाले विचित्र अभिमत की पुष्टि होती हो। प्राचीन, मध्ययुगीन और अर्वाचीन सभी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में लोहार्य को अंतिम प्राचारांगधर बताते हुए एक स्वर से यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वीर नि० सं०६८३ में लोहार्य के स्वर्गस्थ होते ही द्वादशांगी में से अवशिष्ट एक मात्र प्राचारांग भी विच्छिन्न हो गया । लोहार्य के पश्चात् कोई प्राचार्य किसी एक भी सम्पूर्ण अंग का ज्ञाता नहीं हुमा । लोहार्य के पश्चाद्वर्ती सभी प्राचार्य अंगज्ञान एवं पूर्व ज्ञान के एक देशघर ही हुए।
ऐसी स्थिति में नन्दी संघ की तथाकथित प्राकृत पावली, जिसकी कि मूल प्रति प्राज कहीं उपलब्ध नहीं, जिसके रचनाकार एवं रचनाकाल तक का कोई पता नहीं, उसे कहां तक प्रामाणिक अथवा अप्रामाणिक माना जा सकता है, इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करना परमावश्यक हो जाता है।
_इस पट्टावली में सर्व प्रथम ३ श्लोक संस्कृत के और १६ गाथाएं प्राकृत की हैं। डॉ० हीरालालजी ने इस पट्टावली के सम्बन्ध में लिखा है :- "यह पट्रावली प्राकृत में है और संभवतः एक प्रति पर से बिना कुछ संशोधन के छपाई गई होने से उसमें अनेक भाषादि दोष हैं। इस लिये उस पर से उसकी रचना के समय के सम्बन्ध में कुछ कहना अशक्य है। पटावली के ऊपर जो तीन संस्कृत श्लोक हैं, उनकी रचना बहुत शिथिल है। तीसरा श्लोक सदोष है।' पर उन पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका रचयिता स्वयं पट्टावली की रचना नहीं कर रहा, किन्तु वह अपनी उस प्रस्तावना के साथ एक प्राचीन पट्टावली को प्रस्तुत कर रहा है।"
. वस्तुस्थिति यह है कि इस पट्टावली के प्रारम्भ के तीन संस्कृत श्लोकों को यदि अन्यकत्र्तक मान लिया जाता है अथवा इन्हें. पट्टावली में से हटा दिया जाता है तो उस दशा में केवल गाथाओं को पढ़ने से किसी को किंचित्मात्र भी इस प्रकार का आभास नहीं हो सकेगा कि यह किस संघ की पडावली है। ऐसी स्थिति में न तो इन तीन श्लोकों को इस पट्टावली से पृथक् ही किया जा सकता. है और न इन्हें अन्यकर्त्तक हो कहा जा सकता है। यदि इस पड़ावली को भाषा विज्ञान एवं गणित की कसौटी पर कसा जाय तो न केवल इसके आदि के तीन संस्कृत श्लोक हो, अपितु यह सम्पूर्ण पट्टावली ही दोषों से भरी हुई प्रतीत होगी। ' वस्तुतः पहला श्लोक भी सदोष है। चतुर्थ चरण में गणाधिपां के स्थान पर गणाधिपानां होना चाहिए पर उस दशा में छन्दभंग होता है ।
__ -सम्पादक २ (क) डॉ. हीरालालजी ने यह किस आधार पर लिखा है ? कुछ समझ नहीं पड़ता क्योंकि
प्रथम श्लोक में ही स्पष्टतः कहा गया है - "वक्ष्ये पट्टावलि रम्या, मूलसंघ
गणाधिपाम्" अर्थात् - मूलसंघ के गणाधिनायकों की पट्टावली कहूंगा। - सम्पादक (ख) षट्खण्डागम, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ० २४-२५
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