________________
७४२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति
३२) प्राचायों का होना बताया है, जो सभी दृष्टियों से सुसंगत प्रतीत होता है । यद्यपि जिनसेन ने विनयंधर से लेकर आचार्य अमितसेन तक ३१ आचार्यों का पृथक् पृथक् श्राचार्यकाल नहीं दिया है तथापि लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि. सं. ६८३ से स्वयं द्वारा हरिवंश पुराण की समाप्ति का समय शक सं. ७०५ तदनुसार वीर नि. सं. १३१० देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि लोहार्य से लेकर उन स्वयं ( जिनसेन ) तक की ६२७ वर्षों की अवधि में ३१ आचार्य हुए। इस ६२७ वर्ष के समुच्चय काल को ३१ प्राचार्यों में विभक्त किया जाय तो मोटे तौर पर एक एक आचार्य का काल २० वर्ष के लगभग प्रांका जा सकता है ।
इस प्रकार हरिवंश पुराण की प्राचार्य - परम्परा की पट्टावली में उल्लिखित तर्कसंगत एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार द्वारा समर्थित प्रामाणिक तथ्यों से विनयंधरादि प्रदुबल्यान्त पांच आचार्यों का, प्रत्येक आचार्य के २० वर्ष के काल के हिसाब से, समुच्चयकाल १०० वर्ष और तदनुसार अर्हदुबलि का आचार्यकाल वीर नि० सं० ७६३ से ७५३ तक का सिद्ध होता है, न कि नन्दीसंघ की प्राकृत्त पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ५६५ से ५६३ तक का । यह १६० वर्ष का गोलमाल वस्तुतः श्रुतावतार के श्लोक संख्या ८४ का पूर्वाग्रहानुसार अर्थ लगाने एवं हरिवंश पुराण में दी हुई पट्टावली की उपेक्षा करने के कारण हुआ है । यदि दिगम्बर परम्परा के अग्रगण्य विद्वानों ने हरिवंश पुराणान्तर्गत प्राचार्य परम्परा की पट्टावली पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया होता तो न तो प्राचार्यों के काल के विषय में इस प्रकार की गम्भीर भ्रान्ति ही उत्पन्न होती और न उसे कोश जैसे प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थ में स्थान ही दिया जाता। इन ऐतिहासिक तथ्यों के प्रकाश में अर्हदुबलि के पश्चादद्वर्ती माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द आदि आचार्यों के काल के सम्बन्ध में भी पुनर्विचार करना परमावश्यक हो गया है ।
उपरिलिखित सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर सहज ही यह तथ्य प्रकाश में आ जाता है कि प्राचार्यों के काल के विषय में हुई इस भूल की मूल जननी वस्तुतः नन्दीसंघ की उपर्युद्धृत प्राकृत पट्टावली है, जिसकी कि हस्तलिखित मूल प्रति डॉ० हीरालालजी के कथनानुसार आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं । '
ऊपर उद्धृत की गई पट्टावलियों एवं सम्बद्ध उल्लेखों से यह तथ्य तो निर्विवाद रूपेण प्रकट हो चुका है कि दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर एक भी इस प्रकार की पंक्ति उपलब्ध नहीं होगी, जिससे कि नन्दी
१
इस पट्टावली की जांच करने के लिये हमने सिद्धान्त भवन, आरा को उसकी मूल हस्तलिखित प्रतिं भेजने के लिये लिखा, किन्तु वहां से पं० भुजबली जी शास्त्री सूचित करते हैं कि बहुत खोज करने पर भी उस पट्टावली की मूल प्रति मिल नहीं रही है ऐसी श्रवस्था में हमें उसकी जांच मुद्रित पाठ पर से ही करनी पड़ती है ।
[ षट्खण्डागम, भा० १ ( द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ० २४]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org