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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति का समष्टि रूप से २० वर्ष का समय अपने "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश" में उल्लिखित कर दिया है। वस्तुतः कोश का बहुत बड़ा महत्व होता है । वह भावी पीढ़ियों के लिये सहस्राब्दियों तक एक प्रामाणिक थाती के रूप में प्रकाश स्तम्भ का काम करता है। उसमें उल्लिखित प्रत्येक तथ्य सभी दृष्टियों से पूर्वाग्रहों से परे और परम प्रामाणिक होना चाहिए । वर्गीजी ने सैकड़ों ग्रन्थों के साथ-साथ हरिवंश पुराण का भी पालोड़न किया है। उन्होंने प्राज से १२०० वर्ष पूर्व की हरिवंश पुराण की साक्षी को दरगुजर कर पुन्नाट संघ की पट्टावली देते हुए आधुनिक विद्वानों के केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित अभिमत को प्रश्रय दे कर लोहाचार्य आदि प्राचार्यों के काल को ११८ वर्ष पीछे की ओर ठेलने का प्रयास किया है। किन्तु पुन्नाट संघ के प्राचार्य शान्तिसेन, जयसेन और हरिवंश पुराणकार .जिनसेन का समय उपलब्ध साहित्य में उल्लिखित है अतः उन्हें उसे बिना हेर फेर किये यथावत् देना पड़ा है । इससे वास्तविक तथ्य स्वतः ही प्रकट हो जाता है।'
वस्तुतः इन्द्रनन्दिकृत श्रतावतार के श्लोक संख्या ८४ में प्रयक्त 'ततः' शब्द का अध्याहार विनयधर आदि चारों मुनियों के साथ कर लिया जाता और हरिवंश पुराण में वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् की जो आचार्य परम्परा दी गई है, उस ओर दृष्टिपात किया जाता तो वास्तविकता सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट हो जाती और मुख्तार सा० आदि तीनों विद्वानों को कल्पना एवं अनुमान का सहारा लेने की किंचित्मात्र भी आवश्यकता नहीं होती। हरिवंश पुराण में वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् लोहाचार्य से उत्तरवर्ती प्राचार्य परम्परा इस प्रकार दी हुई है :
महातपोभृद्विनयंधरः श्रुतामृषिश्रुति गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्त संज्ञको गुणः स्वमर्हबलिरप्यधात् पदम् ॥२५॥
अर्थात् वीर नि० सं० ६८३ में लोहार्य के स्वर्गस्थ होने पर क्रमशः महान् तपस्वी विनयंधर, गुप्तश्रुति, गुप्त ऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त और प्रर्हबलि प्राचार्य पद पर अधिष्ठित हुए।
यह लोहाचार्य के पश्चात् की और अर्हबलि के समय में हुए संघ-विभाजन से पूर्व की प्राचार्य परम्परा है। यहां स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि लोहाचार्य के पश्चात् विनयंधर, उनके पश्चात् गुप्तश्रुति, फिर गुप्त ऋषि, तदनन्तर शिवगुप्त और उनके अनन्तर अहंबलि प्राचार्य हुए। वस्तुतः विनयंधर आदि ये पांचों ही प्राचार्य मूल आचार्य परम्परा के क्रमशः - एक के पश्चात् एकहुए आचार्य हैं, इस तथ्य को स्वीकार करने में तो किसी को कोई बाधा नहीं होनी चाहिये, क्योंकि दिगम्बर संघ में परम्परा से यह मान्यता चली आ रही है कि १ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३३२ २ हरिवंश पुराण, सर्ग ६६, श्लोक २२-३३ ३ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १ पृ. ३४५
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