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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७४१ अर्हबलि ने भावी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पृथक् पृथक् संघों का निर्माण किया। इन्द्रनन्दि ने तो अपने श्रुतावतार में अर्हबलि द्वारा किये गये संघ-विभाजन का विशद् एवं सुस्पष्ट विवरण दिया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि विनयंधर से अहंबलि तक जो पांच आचार्यों के नाम हरिवंशपुराण और श्रतावतार में दिये गये हैं, वे अनुक्रमशः हुए मूल प्राचार्य-परम्परा के ही प्राचार्य हैं।
यहां एक बात जो विचारणीय है, वह यह है कि हरिवंश पुराणकार तथा श्रुतावतारकार-इन दोनों ने ही लोहार्य के पश्चात् तथा संघविभाजन से पूर्व हुए प्राचार्यों की संख्या समान रूप से यद्यपि ५ ही दी है तथापि उन ५ प्राचार्यों में से २ प्राचार्यों के नाम दोनों ने एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न दिये हैं। इन दोनों ग्रन्थकारों ने लोहाचार्य के पश्चात् हुए प्रथम प्राचार्य का नाम विनयंधर और पांचवें प्राचार्य का नाम अहंबलि दिया है। इन्द्रनन्दि ने तीसरे प्राचार्य का नाम शिवदत्त और जिनसेन ने चौथे प्राचार्य का नाम शिवगुप्त दिया है। क्रम के अतिरिक्त इस नाम में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दूसरे और चौथे प्राचार्यों के नाम इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में श्रीदत्त एवं अर्हद्दत्त लिखे हैं पर जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण में दूसरे प्राचार्य का नाम गुप्तश्रुति तथा चौथे प्राचार्य का नाम गुप्त ऋषि उल्लिखित किया है । यह नाम वैषम्य अवश्य ही कुछ खटकने वाला है पर पूर्वापर दोनों प्राचार्यों के समान नाम, तीसरे प्राचार्य का नगण्य अन्तर के साथ नाम साम्य तथा दोनों ही ग्रन्थों में प्राचार्यों की समान संख्या को देखते हुए इन उल्लेखों की प्रामाणिकता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पाता। उपरिलिखित विभिन्न ग्रन्थों में कतिपय आचार्यों के नामों की भिन्नता प्रायः यत्र तत्र दृष्टिगोचर होती है। दिगम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में केवल प्राचार्यों ही नहीं अपितु गणधरों के नामों में भी वैभिन्य पाया जाता है।
इसके अतिरिक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हरिवंश पुराण में दी गई आचार्य परम्परा की पट्टावली अपने आपमें परिपूर्ण एवं सभी दृष्टियों से अन्य उपलब्ध पट्टावलियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक है। वीर नि. सं. १ से ६८३ तक और दूसरे शब्दों में केवली गौतम से लेकर अन्तिम प्राचारांगधर लोहार्य तक की ६८३ वर्ष की अवधि में जिनसेन ने २८ प्राचार्यों के नाम दिये हैं, जो धवला, तिलोयपण्णत्ती, श्रुतावतार आदि सभी प्रामाणिक ग्रन्थों द्वारा समर्थित हैं। लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि. सं. ६८३ से वीर नि. सं. १३१० (शक सं. ७०५) तक कुल मिलाकर ६२७ वर्षों में जिनसेन ने ३१ (स्वयं को मिलाकर शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषत्तरां पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजेऽपरां, सूर्याणामधिमंडलं जय युते वीरे वराहेऽवति ॥५२।। कल्याणः परिवर्धमानविपुलश्री वर्धमाने पुरे, श्री पालियनन्नराजवसतौ पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चाहोप्तटिका-प्रजाप्रजनितप्राज्याचनावर्चने, शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ।।५३।। [हरिवंश पुराण, सर्ग ६६]
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