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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७४५ नहीं होता, जिससे नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के रचनाकार के उपरिलिखित अभिमतों की किंचिन्मात्र भी पुष्टि होती हो ।
एक बात और बड़ी विचारणीय है, वह यह है कि इस पट्टावली के मादि के प्रथम श्लोक में पट्टावलीकार ने त्रैलोक्येश्वर प्रभु को नमस्कार एवं सद्गुरु की वारणी का स्मरण करने के पश्चात् मूलसंघ के गणनायकों (प्राचार्यों) की सुन्दर पावली की रचना करने की तथा दूसरे एवं तीसरे श्लोक में "श्रेष्ठ मूल संघ के नन्दी प्राम्नायी बलात्कारगरण के सरस्वती गच्छ में जितने कुन्दकुन्दान्वयी आचार्य हुए हैं, उन सबका विवरण मैं यहां प्रस्तुत करूगा अतः सब सज्जन उसे सुनें"', इस प्रकार की प्रतिज्ञा की है।
पट्रावलीकार की उपरोक्त प्रतिज्ञा के सन्दर्भ में इस सम्पूर्ण पावली को ध्यानपूर्वक पढ़ा जाय तो स्वतः ही यह तथ्य प्रकट हो जायगा कि यह पट्टावली वस्तुतः अपने प्राप में अपूर्ण है। क्योंकि पट्टावलीकार की उपर्युद्धृत प्रतिज्ञानुसार न इस पट्टावली में कहीं नन्दी आम्नाय का, न बलात्कार गण का, न सरस्वती गच्छ का और न प्राचार्य कुन्दकुन्द का ही कहीं उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। .
इस पट्टावली की गाथा संख्या १४ के चतुर्थ चरण - "वास दुसद वीस सधेसु ॥" पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर विचारकों के मस्तिष्क में यह प्राशंका उत्पन्न होती है कि इस पट्टावली के रचनाकार ने प्राचीन, प्रचलित एवं प्रामाणिक पट्टावलियों में उल्लिखित तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर इसमें प्रस्तुत किया है । सभी पट्टावलीकारों की वर्णनशैली का अनुसरण करते हुए नन्दी संध की प्राकृत पट्रावली के प्रणयनकार ने भी प्रत्येक श्रतपरम्परा के प्राचार्यों के काल का उल्लेख करते हुए - "सदतेवीस वासे एगादह अंगधरा जादा" - इस गाथार्द्ध से एकादशांगधारियों का काल १२३ वर्ष तथा - "वासं सत्तारणवदिय, दसंग नव अंग अट्टधरा" इस प्राधी गाथा द्वारा दश नव-अष्टांगधरों का काल ६७ वर्ष बताया है। इस सारी पट्टावली को पढ़ने पर यह स्पष्टतः ज्ञात हो जाता है कि इसमें सर्वत्र पृथक्-पृथक श्रुत परम्परा का पृथक्-पृथक् काल दिया है, दो श्रुत परम्पराओं का सम्मिलित काल नहीं । परन्तु : ट्रा एकादशांगधारियों के परम्परागत २२० वर्ष के काल का प्रश्न पाया और उसे पट्टावलीकार ने विवादास्पद बनाया वहां - "दस नव अगधरा वास दुसदवीस सधेसु ।।१४।।" इस गाथार्द्ध द्वारा एकादशांगधारियों एवं दशनवाष्टांगधारियों का सम्मिलित समय २२० वर्ष बताने का प्रयास किया है। यहां पट्टावलीकार द्वारा भयंकर त्रुटि हो गई है। पट्टावलीकार गाथा संख्या १२
१ इन तीन श्लोकों में पट्टावलीकार ने दो बार कहा है कि मूल संघ में हुए गणाचार्यों तथा
मूल संघ के नन्दी प्राम्नायी बलात्कार गरण के सरस्वती गच्छ में कुन्द कुन्दान्वयी जितने भी प्राचार्य हुए हैं उनके सम्बन्ध में मैं कथन करूंगा। ऐसी स्पष्ट दो उक्तियों के होते हुए भी डॉ. हीरालालजी ने इन श्लोकों का अर्थ यह किस प्रकार लगाया है कि पट्टावलीकार किसी पुरातन पट्टावली को प्रस्तुत कर रहे हैं । पाठकगण स्वयं इस पर निर्णय करें।
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