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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [काल नि० ग० भ्रान्ति . के एक देश के धारक हुए । ततः - अर्हद्दत्त के पश्चात् पूर्वदेश के मध्यभाग में स्थित श्रीपुण्ड्रवर्धनपुर में सब अंगों एवं पूर्वो के देशधर अर्हद्वलि नामक मुनि हुए।
इन्द्रनन्दि ने इस स्थल पर एक श्लोक से अर्हद्वलि के गुणों का वर्णन करते हए कहा है -- "वे अर्हद्वलि जिनवाणी के धारण और प्रसारण के विशुद्ध अतिशय से युक्त एवं सत् - विमल क्रिया (साध्वाचार) के पालन में सदा उद्यत रहते थे। वे अष्टांग निमित्त के ज्ञाता तथा सन्धान, अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ थे।" .
__ अर्हद्वलि की महिमा का वर्णन करने के पश्चात् संघविभाजन का उल्लेख करते हुए श्रुतावतारकार ने लिखा है - "एक समय पांच वर्षों के पश्चात् किये जाने वाले युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर सौ-सौ योजन से मूनिसमाज एकत्रित हमा। युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर अर्हद्वलि ने एकत्रित सकल श्रमण संघ को यह कहते हुए कि भविष्य में कालप्रभाव से गणपक्षपात का प्राबल्य रहेगा-श्रमण संघ को नन्दीसंघ, वीर संघ, अपराजित संघ, देव संघ, सेन संघ, भद्रसंघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, सिंह संघ और चन्द्र संघ- इन दश संघों में विभाजित किया।"
संघ-विभाजन का विवरण देते हुए इन्द्रनन्दि ने लिखा है कि उस युग प्रतिक्रमण के अवसर पर एकत्रित हुए समस्त मुनि गिरिगुहा, अशोकवाट, पंचस्तूप, शाल्मलीमहाद्रुममूल और खण्डकेसर नामक ५ स्थानों से पाये थे । प्रत्येक स्थान से आये हुए मुनियों को दो दो भागों में विभक्त कर अर्हद्वलि ने अनुक्रमशः उपरोक्त १० संघों की स्थापना की।
अपने इस अभिमत का आधार प्रस्तुत करते हुए इन्द्रनन्दि ने एक अज्ञातलेखक का निम्नलिखित प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है :
प्रायातो नन्दिवीरो प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटा.द्देवाश्चान्योऽपरादिर्जित इति यतिपो सेन भद्राह्वयो च । पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधर - वृषभः शाल्मलीवृक्षभूलानिर्यातौ सिंहचन्द्रौ प्रथितगुणगणो केसरात्खण्डपूर्वात् ।।
एक अन्य मान्यता का उल्लेख करते हुए इन्द्रनन्दि ने लिखा है - "गिरिगुहा से पाये हए मूनियों से नंदिसंघ, अशोक वन से पाये हए मुनियों से देव संघ, पंच स्तूप से प्राये हुए मुनियों से सेन संघ, शाल्मलीतरु के मूल में निवास करने वाले मुनियों से वीर संघ और खण्डकेसर वृक्ष के मूल में रहने वाले मनियों से भद्रसंघ इस प्रकार पांच संघ ही गठित किये गये । इस प्रकार मुनिसंघों के प्रवर्तक अर्हलि के प्रति विनय प्रदर्शित करने वाले पांच प्रकार के कुलों के प्राचार से पूजनीय (उपास्य) पांच प्राचार्य थे।"
अर्हद्वलि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् माघनन्दि नामक प्राचार्य हुए। वे भी एक देश अंगपूर्व की प्ररूपणा कर समाधिपूर्वक स्वर्गस्थ हुए । इन्द्र नन्दि ने माघनन्दि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर महातपा घरसेनाचार्य के होने का तो उल्लेख किया है किन्तु प्राचार्य धरसेन प्राचार्य माघनन्दि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् तत्काल
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