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कास नि. ग. भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि समाश्रमण १६. धर्मसेन दश पूर्वधर १४ ( १६) २६. यशोभद्र १०,६ व ८
अंगधारी १८ योग १८१ (१८३)
-- २७. भद्रबाहु (२), २३ २०. नक्षत्र ११ अंगधारी १८ २८. लोहाचार्य , ५२ (५०) २१. जयपाल , २०
योग ६६ (६७) २२. पाण्डव , . ३६
२६. अहंद्बलि १ अंगधर २८ वर्ष २३. ध्रुवसेन , १४ ३०. माघनन्दि , २१ २४. कंस , ३२
३१. धरसेन
१६ योग १२३ ३२. पुष्पदंत २५. सुभद्र १०,६,८
३३. भूतबलि " अंगधारी ६
योग ११८ पूर्ण योग ६२+१००+१८३+१२३+६७+११८६८३ .
हरिवंशपुराण, श्रुतावतार और नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली - इन तीन ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य सभी उपर्युक्त ग्रन्थों में ग्रन्थकारों ने आर्य लोहाचार्य तक समाप्त हुए वीर नि० के ६८३ वर्षों के पश्चात् न तो प्राचार्यों का नामनिर्देश ही किया है और न कालनिर्देश ही। .
__इन्द्रनन्दि द्वारा श्रतावतार के श्लोक संख्या ७४, ७५, ७६, ८१ और २ में 'ततः' शब्द का प्रयोग पूर्वापर अनुक्रम बताने के लिये. किया गया है । 'तत.' शब्द का स्वतः सिद्ध सीधा सा अर्थ है- उसके पश्चात् । उपरिचचित श्लोकों में भी 'ततः' (तदनन्तरम्) शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है कि पूर्ववरिणत प्राचार्य के पश्चात् अमुक-अमुक प्राचार्य हुए, पूर्वचर्चित श्रुतपरम्परा के अनन्तर अमुक श्रुतपरम्परा का अस्तित्व रहा और इन इन ऐतिहासिक घटनामों के घटिरः होने के पश्चात् ये ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई।
वीर निर्वाण सं० १ से ६८३ वर्षों के सुदीर्घकाल में हुए गौतमादि लोहार्यात प्राचार्यों केवली, श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी पौर प्राचारांगधारी श्रुतपरम्परा परिचय देने के पश्चात् इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में पुन: 'ततः' शब्द के ! के साथ अंग-पूर्व के देशधर प्राचार्यों का अनुक्रम निम्नलिखित रूप में दिया ।
:: श्रीदत्तः, शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते । पारातीया यतयस्ततोऽभवन्नंगपूर्वदेशधराः ।।८४॥ * गंगपूर्वदेशकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगते । श्रापुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽहंबल्याख्यः ।।८।।
अर्थात् - ततः तदनन्तरं (अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के पश्चात्) विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और मर्हद्दत्त नाम के चार (४) पारातीय मुनि अंगपूर्व
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