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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति
पुनाट संघ के प्राचार्य जिनसेन ने वीर नि० सं० १ से १३१० तक की प्राचार्य परम्परा की पट्टावली दो है । आचार्य परम्परा की इतनी लम्बी अवधि की क्रमबद्ध एवं अविच्छिन्न पट्टावली दिगम्बर परम्परा में अन्यत्र देखने में नहीं प्राती । इस पट्टावली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्द्रभूति गौतम से लेकर अंतिम श्राचारांगधर लोहार्य तक ६८३ वर्ष की श्राचार्य परम्परा का उल्लेख करने के पश्चात् लोहाचार्य के अनन्तर संघ विभाजन से पूर्व के प्राचार्यों के क्रमबद्ध नाम देकर तत्पश्चात् संघ विभाजन के अनन्तर हुए पुन्नाटसंघ के प्राचार्य का अनुक्रमशः नामोल्लेख किया है । इस पट्टावली के महत्त्व को अभी तक प्रांका नहीं गया है । यदि यह कहा जाय तो भी अनुचित नहीं होगा कि इस पट्टावली की प्राज दिन तकं विद्वानों द्वारा उपेक्षा की जाती रही है ।
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नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के माध्यम से प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो एक जटिल समस्या उत्पन्न कर दी गई है, उसका समुचित रूपेण सदा के लिए समाधान करने में यह पट्टावली बड़ी सहायक सिद्ध होगी, अतः इसे यहां यथावत् दिया जा रहा है :
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हरिवंश पुराणान्तर्गत पट्टावली
त्रयः क्रमात्केवलिनो जिनात्परे, द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनोऽभवन् । ततः परे पंच समस्त पूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः ||२२|| त्र्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक्, दशैव गीता दशपूर्विणः शते । द्वये च विशेऽङ्गभृतोऽपि पंच ते, शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ||२३|| गुरू: सुभद्रो जयभद्रनामकः परो यशोबाहुरनन्तरस्ततः । महार्हलोहार्य गुरुश्च ये दधुः, प्रसिद्धमाचारमहाङ्गमत्र ते ।। २४ ।।
इसी तरह अपभ्रंश भाषा के लब्धप्रतिष्ठ कवि पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में वीर निर्वाण के पश्चात् हुए केवलियों, श्रुतके वलियों, दशपूर्वधरों, एकादशांगधरों तथा एकांगधरों का उपरिवरिणत काल बताते हुए लोहाचार्य को अंतिम श्राचारांगधर बताया है ।"
इस प्रकार धवला, तिलोयपण्णत्ती, इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार, ब्रह्म हेमचन्द्र कृत श्रुतस्कन्ध, उत्तर पुराण, जम्बूद्वीप पण्णत्ती के अन्तर्गत दी हुई श्रुतधर पट्टावली और हरिवंश पुराण में वीर नि० सं० १ से ६८३ तक हुए इन्द्रभूति गौतम से लेकर अंतिम प्रचारांगधर लोहार्य तक प्राचार्यों का काल तथा क्रम सर्वसम्मत रूपेण एक समान दिया गया है। गौतम से लोहार्य तक सभी प्राचार्यों के काल अथवा क्रम के सम्बन्ध में उपरिवरिणत सभी ग्रन्थकार एक मत हैं । कहीं किसी का किंचितमात्र भी मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता ।
दिगम्बर परम्परा के उपरिलिखित प्राचीन एवं प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों के स्पष्ट उल्लेख के उपरान्त भी आचारांगधर लोहाचार्य का काल वीर नि०
, महापुराण (पुष्पदन्त), सन्धि १००, पृ० २७४
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