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का० सं० में ग० भ्रांति ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण
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प्राचार्य धर्मसेन के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर पूर्वज्ञान के विच्छिन्न होने का इन सभी ग्रन्थों में उल्लेख है। यहां तक केवल केवलिकाल को छोड़कर दशपूर्वधरों' तक की श्रुतपरम्परा की विद्यमानता के सम्बन्ध में उपरोक्त ग्रन्थों के रचयिताओं का मतैक्य है ।
इसके पश्चात् एकादशांगधर प्रौर प्राचारांगधर आचार्यों के काल के सम्बन्ध में भी नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के अतिरिक्त उपरोक्त सभी ग्रन्थों में. यह सर्वसम्मत अभिमत व्यक्त किया गया है कि वीर नि. सं. ५६५ में अंतिम एकादशांगघर कंसार्य के दिवंगत होने पर एकादशांगधरों की परम्परा समाप्त हो गई और वीर निर्वारण सं. ६५३ में अंतिम आचारांगधर लोहार्य का स्वर्गवास होते ही आचारांग भी विच्छिन्न हो गया । इन सभी ग्रन्थों में एक स्वर से यह मान्यता प्रकट की गई है कि एक अंग ( श्राचारांग ) धारियों में अंतिम आचार्य लोहार्य हुए और उनके पश्चात् सभी श्राचार्य पूर्वज्ञान तथा अंगज्ञान के एक देशघर ही हुए तथा पंचम धारक की समाप्ति पर्यन्त सभी प्राचार्य पूर्व एवं अंगज्ञान के एक देशघर होंगे । दिगम्बर परम्परा की कतिपय पट्टावलियों में भी उपयुक्त ग्रन्थों के उपरिलिखित अभिमत की पुष्टि की गई है ।
दिगम्बर परम्परा में शताब्दियों से सर्वसम्मत रूपेरण चली प्रारही इस मान्यता एवं प्रास्था को ई० सन् १९१३ के " जैन सिद्धान्त भास्कर", भाग १, किरण ४ में छपी नन्दी संघ की (तथाकथित) प्राकृत पट्टावली ने थोड़ा हिला दिया । ई० सन् १९३६ में प्रकाशित धवला, प्रथम भाग की प्रस्तावना में प्रसिद्ध विद्वान् डा. हीरालाल ने गौतम आदि आचार्यों के समय पर विचार करते हुए धवला, जयधवला, हरिवंश पुराण, श्रुतावतार ( इन्द्रनन्दीकृत) आदि के एतद्विषयक उल्लेखों को प्रस्तुत करने के पश्चात् नन्दीसंघ की तथाकथित पट्टावली को उद्धृत किया । इस पट्टावली में निर्वाण पश्चात् के ३ केवलियों, ५ श्रुतकेवलियों और ११ अंगधरों का तो वही समय दिया गया है, जो हरिवंश पुराण, तिलोय पण्णत्ती, धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, श्रुतावतार आदि में उल्लिखित है । परन्तु अंतिम १० पूर्वधर धर्मसेन के पश्चात् पांच एकादशांगधरों का समय जहां उपर्युक्त प्राचीन ग्रन्थों में २२० वर्ष बताया गया है, वहां नन्दी संघ की कही जाने वाली इस पट्टावली में १२३ वर्ष ही दिया गया है ।
जहां धवला आदि उपरिचित सभी ग्रंथों में सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य को एकांगधारी ( प्राचारांगधर ) बताते हुए इन चारों का समय समुच्चय रूप से ११८ वर्ष उल्लिखित किया गया है, वहां नन्दी संघ की इस पट्टावली में
उत्तरपुराण ( पर्व ७६, पृ. ५३७ ) और पुष्पदन्तकृत प्रपभ्रंश के महापुराण में वीर नि. सं० १ से ६४ तक केवलिकाल माना गया है ।
- सम्पादक
२ सुभद्रोऽथ यशोभद्रो, भद्रबाहुगंणाग्रणी । लोहाचार्येति विख्याता, प्रथमांगा ब्धिपारगाः ॥ १० ॥
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[काष्ठा संघस्य गुर्वावली ?
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