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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ काल नि० ग० भ्रान्ति
इन्हें दश, नव एवं प्राठ अंगधारी' बताकर एकादशांगधारियों के काल में से काटे गये ६७ वर्षों को इनके साथ संलग्न करते हुए इन चारों का समय ६७ वर्ष बताया है । इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के प्रामाणिक माने जाने वाले सभी ग्रंथों में अन्तिम श्राचारांग - धर लोहार्य का समय जहां वीर निर्वारण संवत् ६८३ बताया गया है, उसे नन्दी संघ की इस प्राकृत पट्टावली में ११८ वर्ष पीछे की श्रोर ढकेल कर वीर नि. सं. ५६५ उल्लिखित किया गया है । तदनन्तर लोहार्य के पश्चात् हुए विनयधर श्रादि ४ प्रराती मुनियों का समय निर्देश तो दूर नामोल्लेख तक इस पट्टावली में नहीं किया गया है। केवल यही नहीं अपितु दिगम्बर परम्परा के समस्त वाङ्मय की मान्यता से पूर्णतः विपरीत एक प्रति विलक्षण एवं प्राश्चर्यजनक उल्लेख के साथ नन्दी संघ की तथाकथित पट्टावली में लोहार्य के पश्चात् श्रहंद्वलि, माघनंदी, धरसेन, पुष्पदंत और भूतवली, इन पांच प्राचार्यों को प्राचारांगधर बताने के साथ साथ इन पांचों का कुल समय ११८ वर्ष बताया गया है । इस प्रकार अंग ज्ञान के विच्छिन्न होने का समय हरिवंश पुराणादि की मान्यतानुसार वीर नि. सं. ६८३ यथावत् रखते हुए पट्टावलीकार ने सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु, और लोहार्य को १०, ६ तथा अष्टांगधर बनाकर वीर नि. सं० ६८३ में स्वर्गस्थ हुए लोहार्य का ११८ वर्ष पूर्व, वीर नि. सं. ७८३ के लगभग स्वर्गस्थ हुए प्राचार्य अर्हद्वलि का वीर नि० सं० ५६३ में दिवंगत होना बताया है | धवला प्रथम भाग की प्रपनी प्रस्तावना में डॉ० हीरालालजी ने इस पट्टावली की विशेषताओं और दोषों का उल्लेख करने के पश्चात् इसकी प्रामारिकता और अप्रामाणिकता के संबंध में अपना कोई निश्चित अभिमत व्यक्त नहीं करते हुए लिखा है- "समयाभाव के कारण इस समय हम इसकी प्रोर अधिक जांच पड़ताल नहीं कर सकते । किन्तु साधक-बाधक प्रमारणों का संग्रह करके इसका निर्णय किये जाने की आवश्यकता है ।" "
धवला के उपर्युक्त प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण के सम्पादकीय में डॉ० द्वय श्री हीरालालजी और ए. एन. उपाध्ये ने 'पन्नवरणा सूत्र और पट्खण्डागम' में प्रतिपादित विषय तथा अन्य कतिपय साम्यताओं पर अपने बहुमूल्य विचार प्रकट कर विशेष प्रकाश डाला है किन्तु नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के प्रकाशन से निर्वारणानन्तर हुए प्राचीन आचार्यों के काल के सम्बन्ध में जो भ्रान्त एवं संदिग्ध धारणा उत्पन्न हो गई है, उसके सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया है ।
यद्यपि डॉ० हीरालालजी ने उक्त प्रस्तावनान्तर्गत अपने निष्कर्ष में "नन्दी संघ प्राकृत पट्टावली' की प्रामाणिकता अथवा प्रामाणिकता विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है पर हरिवंश पुराणादि में दिये गये वीर नि. सं. १ से ६८३
" नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली में यह नहीं बताया गया है कि इन चारों प्राचार्यों में से कौन-कौन से प्राचार्य कितने कितने अंगों के ज्ञाता थे ।
- सम्पादक
२ धवला, प्रथम भाग की प्रस्तावना, पृ. २५
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