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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० और षट्खण्डागम इससे अनुमान लगाया जाता है कि गुणधर संघविभाजन से पर्याप्तरूपेण पूर्ववर्ती प्राचार्य रहे हैं और उनकी शिष्य प्रशिष्य संतति को प्रर्हद्वलि ने गुणधर संघ के नाम से अभिहित किया।
कषाय-पाहड़ के उद्धरण, प्राधार, साक्षी एवं निर्देश प्रादि श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों 'शतकरिण' तथा 'सप्ततिकारिण' आदि में उपलब्ध होते हैं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि पूर्ववर्ती समय में यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में भी उसी प्रकार मान्य था, जिस प्रकार कि दिगम्बर परम्परा में मान्य है।
कपाय-पाहुड़ की चूणि में "सवलिंगेसु च भज्जाणि" - अर्थात् चारित्रवेष धारण किये विना जीव अन्य तीथिकों के वेष में भी क्षपक हो सकता है - यह जो बात कही गई है, वह दिगम्बर परम्परा की मान्यता से विरुद्ध पड़ती है। इसके अतिरिक्त कषाय-पाहड़ की चूरिण में ऋजुसूत्र नय को द्रव्याथिक नय के रूप में बताया गया है। वस्तुतः यह दिगम्बर परम्परा की मान्यता के विपरीत है। दिगम्बर परम्परा में नेगम, संग्रह और व्यवहार नय को द्रव्यार्थिक नय तथा ऋजुसूत्रादि नयों को पर्यायाथिक नय माना गया है।
कषाय प्राभृत चूणि में 'देशोपशमना' का अधिकार श्वेताम्बर अन्य 'कम्मपयडि' में से जान लेने का निर्देश दिया गया है।'
जयधवला में कषाय-पाहड़ के रचयिता आचार्य गुणधर को तथा यतिवृषभ के गुरु प्रार्य मंच एवं नागहस्ति को वाचक बताया है। वाचक परम्परा वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा की एक क्रमबद्ध एवं विश्रुत परम्परा मानी गई है। केवल यही नहीं गुणधर, मंक्षु और नागहस्ति ये तीनों प्राचार्य दिगम्बर परम्परा की किसी भी क्रमवद्ध अथवा प्रक्रमबद्ध पट्टावली में दृष्टिगोचर नही होते।
इन कतिपय तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में श्वेताम्बर परम्परा के अनेक विद्वानों द्वारा गुणधर को श्वेताम्बर आचार्य तथा उनकी कृति कसाय पाहुड़ को श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ बताया जाता है। वस्तुत षट्- खण्डामम और कषाय-पाहुड़ ये दोनों मूल ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य होने योग्य हैं। कालनिर्णय के सम्बन्ध में गम्भीर भ्रान्ति :
हरिवंशपुराण, धवला, जयधवला, उत्तर पुराण, तिलोयपन्नत्ती, जंबूद्वीप पण्णत्ती, इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार, और नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली आदि दिगम्बर परम्परा के सभी मान्य ग्रन्थों में वीर नि० संवत् ६८३ तक अंग ज्ञान की विद्यमानता का उल्लेख किया गया है। वीर नि. सं. ३४५ में अंतिम दश पूर्वधर
१ जा सा कर गोवसामणा सा दुविहा.... 'देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामरणा त्तिवि । अपसत्थ उवसामणात्ति वि । एसा कम्मपडिसु ।
(कसाय-पाहुड़ चूरिण, पृ० ७०७).
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