Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 853
________________ प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वघर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७२३ दिया, उसी तरह मैं भी प्रज्ञापनासूत्र नामक इस अद्भुत श्रुतरत्न का वर्णन करूंगा। ठीक उसी तरह अपने ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए बोधपाहुडकार ने भी कहा है कि भव्यजनों को बोध देने एवं षड्जीव निकाय के हितार्थ भगवान ने जो उपदेश दिया, वह शब्दों के रूप में ढाला जाकर भाषा सूत्रों के स्वरूप में प्रकट हुआ। जिनेन्द्र प्रभु के उस उपदेश को उसी रूप में भद्रबाह के शिष्य ने कहा है। इन सब तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से सहज ही यह सिद्ध हो जाता है कि पन्नवणासूत्र तेवीसवें वाचक आर्य श्याम की ही कृति है। श्री ए० एन० उपाध्ये और श्री हीरालालजी द्वारा प्रस्तुत शंकायों के बारे में जो विचार ऊपर प्रस्तुत किये गये हैं, उनसे यह स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि उनकी शंकाएं न न्याय संगत ही हैं और न तर्कसंगत ही। उपर्युल्लिखित विस्तृत विवेचन से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि पत्रवरणासूत्र की रचना प्रार्यश्याम ने वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच किसी समय की। इसके विपरीत षट्खण्डागम के रचनाकार प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि का निश्चित समय बताने वाले प्रामाणिक उल्लेख दिगम्बर परम्परा के साहित्य में आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं। हरिवंश पुराण में दी हई प्राचार्यपरम्परा की पट्टावली पर विचार करने के पश्चात् अर्हद्बलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ अथवा ७६१ तक का सिद्ध होता है। यद्यपि धरसेन और पुष्पदंत तथा भूतबलि को कोई प्रामाणिक पट्टपरम्परा उपलब्ध नहीं होती, फिर भी धवलाकार तथा इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार विषयक विवरण को पढ़ने से धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समय वीर नि० सं० ८०० और उससे भी पश्चात् का अनुमानित किया जाता है। आगे अभी इसी अध्याय में इस प्रश्न पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है । षट्खण्डागम के समान ही कषाय-पाहुड़ का भी दिगम्बर परम्परा के मागम ग्रन्थों में सर्वोपरि स्थान है। जयधवलाकार ने जयधवला में तथा इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में प्राचार्य गुणधर को कषाय-पाहड़ का कर्ता बताया है। दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में कहीं प्राचार्य गुणधर का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इन्द्रनन्दी ने भी श्रुतावतार में लिखा है कि प्राचार्य गुणधर और धरसेन की गुरू-शिष्य परम्परा का पूर्वापर क्रम कहीं उपलब्ध नहीं होता। इतना सब कुछ होते हुए भी अर्हबलि द्वारा किये गये संघ विभाजन का विवरण प्रस्तुत करते हुए इन्द्रनन्दी ने लिखा है : ये शाल्मलीमहाद्रुममूलाद्यतयोऽभ्युपागता तेषु । काश्चिद् गुणधर संज्ञान्कांश्चिद् गुप्ताह्वयानकरोत् ।।१४।। .. अर्थात् - शाल्मली महावृक्ष के मूल से जो साधु आये थे, उनमें से कतिपय को प्रहबलि ने गुणधर संज्ञा और कतिपय को गुप्त संज्ञा प्रदान की। ' प्राभृत संग्रह, पृ० ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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