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काल नि० ग० भ्रान्ति] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७२६ हरिवंश पुराण में दी गई आचार्य परम्परा के अनुसार अर्हबलि का समय वीर नि० सं० ७६३ से ७८३ अथवा ७६१ के बीच का सिद्ध होता है किन्तु वर्णीजी ने आज से ११६० वर्ष पूर्व के लिखित पुष्ट प्रमाण की अपेक्षा भी डॉ० हीरालालजी द्वारा केवल अनुमान के आधार पर अर्द्धसमर्थित नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टीवली में उल्लिखित अर्हबलि के वीर नि० सं० ५६५ से ५६३ तक के काल को प्रश्रय देकर पूर्ण प्रामाणिक ठहराने का प्रयास करते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में उस ही का उल्लेख किया है।' हरिवंशपुराण में प्राचार्य जिनसेन ने लोहाचार्य को अंतिम आचारांगधर बताते हुए उनका अंतिम समय ६८३ और स्वयं द्वारा हरिवंश पुराण की रचना का काल शक सं० ७०५ तदनुसार वीर नि० सं० १३१० उल्लिखित किया है। पर वर्णीजी ने पुन्नाट संघ की प्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों की जो सूची दी है, उसमें हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन का तो वही समय (शक सं० ७०५) दिया है, जो हरिवंश में उल्लिखित है किन्तु लोहाचार्य का समय हरिवंशपुराण के उल्लेखानुसार वीर नि० सं० ६८३ न देकर नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ५१५ से ५६५ दिया है ।
कतिपय प्राचार्यों तथा उनकी कृतियों को, उनके वास्तविक समय से दोढाई सौ वर्ष पूर्वकालीन सिद्ध करने के प्रयास का ही प्रतिफल है कि प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेखों की प्रामाणिकता को संदेहास्पद बता नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को सर्वाधिक प्रश्रय देकर उसे प्रामाणिकता का जामा पहनाने का असफल प्रयास किया जा रहा है। वस्तुतः इस प्रकार की प्रवृत्ति इतिहास की गरिमा के लिये बड़ी घातक सिद्ध हो सकती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में नन्दीसंघ की प्राकृत पद्रावली के उल्लेखों को एक मान्यता के रूप में स्थान दे दिया गया है। यह प्रवृत्ति आगे न बढ़ने पाये और यहीं समाप्त कर दी जाय इस दृष्टि से यहां इस प्रश्न पर विस्तारपूर्वक विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। वास्तविक स्थिति को समझने के लिये सर्व प्रथम धवला तिलोयपण्णत्ती, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, श्रुतावतार आदि प्राचीन ग्रन्थों के उन उल्लेखों को यहां प्रस्तुत करना आवश्यक है, जो कि परम्परागत मान्यता के मूल प्राधार हैं।
प्राचार्य वीरसेन (शक सं० ७३८) ने दिगम्बर परम्परा के परम मान्य षट्खण्डागम-वेदना खण्ड की टीका में वीर नि० सं० १ से ६८३ तक प्राचार्यों के काल एवं क्रम का निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है :
___ "भगवान् महावीर के मुक्त होने पर गणधर गौतम केवलज्ञानी हुए। १२ वर्ष तक केवली रूप में विचरण कर वे भी मुक्त हुए। उनके पश्चात् प्राचार्य लोहार्य केवलज्ञान के धारक हुए। वे भी १२ वर्ष तक केवली रूप में विहारकर निर्वाण को प्राप्त हुए। ३८ वर्ष तक केवल विहार से विचरण कर प्रार्य जम्बू भी सिद्ध हुए। पार्य जम्बू के मुक्त होने पर केवलज्ञान परम्परा का भरत क्षेत्र में
'जनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा० १, पृ० ३४५
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