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प्रज्ञा और पट्खण्डागम ] सामान्य पूर्वधर काल : देवद्ध क्षमाश्रमण
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इन उल्लेखों के अतिरिक्त पन्नवरणाकार आर्य श्यामाचार्य और षट्खण्डागमकार प्राचार्य धरसेन के काल के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो आर्यश्याम वस्तुतः दशपूर्वघर होने के कारण' अंग पूर्वदेशधर प्राचार्य घरसेन से बहुत पूर्ववर्ती प्राचार्य सिद्ध होते हैं ।
नंदी सूत्रान्तर्गत पट्टावली की गाथा सं० २० से २६ में जिन महापुरुषों का स्मरण और वन्दन किया गया है, उनमें आर्यश्यामाचार्य का २३वां स्थान है । दुष्षमाकाल श्रमण संघस्तोत्र की अवचूरि, विचारश्रेणी, तपागच्छ पट्टावली ४ प्रादि अनेक ग्रन्थों में आपका युगप्रधानाचार्यकाल वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ बताया गया है ।
प्रथमोदय युगप्रधान यंत्र में आपका गृहस्थपर्याय २० वर्ष, व्रतपर्याय ३५ वर्ष, युग प्रधानाचार्यकाल ४१ वर्ष और पूर्ण श्रायु ६६ वर्ष, १ मास तथा १ दिन का बताया गया है । तपागच्छ पट्टावली के प्रतिरिक्त 'विचारश्रेणी' में भी प्रार्य श्यामाचार्य को 'प्रज्ञापनासूत्र' का रचनाकार बताते हुए लिखा है :
"ततः ३३५ श्रनुनिगोदव्याख्याता कालकाचार्य: । 'किलास्मद्वत् संप्रति भरते कालकाचार्यो निगोदव्याख्यातेति' श्रीसीमंधरवाचं श्रुत्वा वृद्धविप्ररूपेणेन्द्रः कालकाचार्य-पार्श्वे तथैव निगोदव्याख्याश्रवणादनु निजमायुरपृच्छत् । तैश्च श्रुतोपयोगादिन्द्रोऽसाविति ज्ञातः । प्रयं च प्रज्ञापनोपांगकृत्"
यह पहले ही बताया जा चुका है कि पन्नवरणा सूत्र की रचना का उपक्रम करते हुए पन्नवरणा सूत्रकार ने इसकी आदि में जो तीन गाथाएं दी हैं, उनमें दूसरी और तीसरी गाथा के बीच में आर्य श्यामाचार्य के पश्चादूवर्ती किसी आचार्य ने "वायगवरवंसाप्रो, तेवीस इमेण धीरपुरिसेग" - इन पदद्वय से प्रारम्भ होने वाली दो गाथाएं जोड़कर सदा के लिये स्पष्ट कर दिया है कि इस श्रतरत्न पन्नवरणा सूत्र की रचना श्रार्य श्याम ने की है ।
इन सभी उपर्युक्त सुस्पष्ट, परस्पर पुष्ट एवं प्रबल प्रमारणों से यह निर्विवाद रूपेण सिद्ध हो जाता है कि वीर निर्वारण सं० ३३५ से ३७६ तक युग प्रधान पद पर रहे तेवीसवें वाचक श्रेष्ठ प्रार्य श्याम ने पन्नवरणा सूत्र की रचना की ।
' महानिरि सुहस्ती च सूरिश्री गुणसुन्दरः । श्यामा स्कन्दिलाचार्यो, रेवतीमित्र सूरिराट् ॥ श्री धर्मो भद्रगुप्तश्च, श्री गुप्तो वज्रसूरिराट् । युगप्रधानप्रवरा, दर्शते दशपूर्विण: ।।
[विचारश्रेणि परिशिष्टम्, जैन साहित्य संशोधक खं० २,४]
૨ पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृ० १७
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गुण सुन्दर चउप्राला, एवं तिसयापरणतीसा ||
ततो इगचालीसं निगोयवक्खाय कालिगायरियो | [जैन सा० संशोधक श्रं० २, पृ० ४] बलिस्सहस्य शिष्यः स्वाति तच्छिष्यः श्यामाचार्य प्रज्ञापनाकृत् । श्री वीरात् षट्सप्तत्यधिकशतत्रये ( ३७६) स्वर्गभाक् । [ पट्टावली समुच्चय, भा० १, पृष्ठ ४६ ]
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