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प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवरि क्षमाश्रमण अन्यकर्तृक बताते हुए उन्होंने इनकी व्याख्या की, तो इससे तो ये गाथाएं प्रज से १६००-१७०० वर्ष पुरानी सिद्ध होती हैं ।
___ जहां तक प्रक्षिप्त गाथानों के प्रक्षेप के समय का पीर प्रक्षेपकर्ता के नाम का प्रश्न है, स्वयं डॉ० ए० एन० उपाध्ये इस तथ्य से भलीभांति परिचित है कि प्रक्षेपक का नाम और समय बताना शतप्रतिशत मामलों में न सही ९९ प्रतिशत में तो एक प्रकार से असंभव ही है। प्रवचनसार पर ईसा की १० वीं शताब्दी में अमृतचन्द्र' ने टीका लिखी, उस समय स्त्री की उसी भव में मुक्ति का निषेध करने वाली "पेच्छदि ण हि इहलोग" मादि ११ गाथाएं उसमें नहीं थीं पतन तो अमृतचन्द्र ने उन गाथाओं को अपने टीका-ग्रन्थ में स्थान ही दिया और न उनकी व्याख्या ही की।
प्राचार्य प्रमृतचन्द्र से लगभग २०० वर्ष पश्चात हुए जयसेनानाय ने उन ११ माथानों को अपनी टीका में स्थान देकर उनकी व्याख्या की है। उन्होंने सष्ट रूप से टीका में लिखा है :
"तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणप्रधानत्वेन 'पेच्छदि ण हि इह लोग' इत्याद्येकादश गाथा भवन्ति । ताश्चामृतचन्द्रटीकायां न सन्ति ।"
इन ११ गाथानों को किसने और कब प्रवचनसार में प्रक्षिप्त किया इसका सन्तोषप्रद उत्तर संभवतः किसी विद्वान् के पास नहीं होगा।
पन्नवणा सूत्र की प्रादि की दूसरी पार तीसरी गाथामों के बीच में प्रक्षिप्त , २ गाथाओं में प्रार्यश्याम को वाचकवर-वंश का तेवीसवां पुरुष बताया गया है। इस सम्बन्ध में डॉक्टर द्वय ने अपने सम्पादकीय में एक बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि यह वाचकवंश कब प्रारम्भ हुआ और उसकी तेवीसवीं पीढ़ी कब पड़ी-- इसका लेखा-जोखा कहां है ? ।
वस्तुतः यह प्रश्न विचारणीय है । प्राचार्य परम्परा से संबन्धित वाङ्मय में इसका हल विद्यमान है पर कतिपय विद्वानों का ध्यान उस ओर नहीं गया है। पन्नवणा सूत्रान्तर्गत उपयुद्धत दो अन्यकर्तृक गाथाओं में से प्रथम गाथा में प्रार्य श्याम को वाचक वंश का २३ वां पुरुष बताया गया है । वाचक शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार हरिभद्र ने लिखा है - "वाचकाः पूर्व-विदः" अर्थात् वाचक शब्द का अर्थ है पूर्वज्ञान के ज्ञाता । पूर्व-विदों को वाचक मान लिये जाने की स्थिति में भगवान महावीर के ग्यारहों गाधरों की. वाचकवंश में गणना करना आवश्यक हो जाता है। आर्य सुधर्मा से वाचनाचार्यों की गणना किये जाने पर आर्य श्याम का नाम १३ वें स्थान पर प्राता है। पर इन्द्रभूति प्रादि ग्यारहों ' Introduction-by A. N. Upadhye-on Pravachansara p. 101. २ Same-p. 104. 3 प्रवचनसार (ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित), पृ० २६६ • हारीभद्रीया प्रज्ञापना वृत्ति, पृ० ५
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