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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रजा० प्रौर षट्खण्डागम ___ "वाचकाः पर्वविदः, वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवराः वाचकप्रधाना इत्यर्थः, तेषां वंशः - प्रवाहो वाचकवरवंशस्तस्मिन् त्रयोविंशतितमेन, तथा च सुधर्मादारभ्य प्रार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव,......
वर्तमान में जितनी भी प्राचार्य परम्परा की पट्टावलियां उप... ध हैं, उन सब में प्रार्य सुधर्मा से गणना कर प्रार्यश्याम को १३ वां वाचनाचार्य और १२ वां युगप्रधानाचार्य बताया गया है । सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में ऐसी एक भी प्राचार्य परम्परा की पट्टावली दृष्टिगोचर नहीं होती, जिसमें आर्य सुधर्मा से गणना कर आर्य श्याम को २३ वां पुरुष बताया गया हो। प्राचार्य हरिभद्र के - "तथा च सुधर्मादारभ्य आर्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव"-इन शब्दों से तो स्पष्टतः यही प्रतिध्वनित होता है कि उनकी दृष्टि में निश्चितरूपेण आर्यश्याम आर्य सुधर्मा से २३ वें पुरुष ही थे। तभी उन्होंने साधिकारिक भाषा में लिखा है - "सुधर्मादारभ्य आर्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव ।" तो क्या प्राचार्य हरिभद्र के समक्ष कोई ऐसी पदावली विद्यमान थी, जिसमें प्रार्य श्याम को प्रार्य सुधर्मा से २३ वां पुरुष बताया गया था? यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है, जिसका उत्तर प्राचार्य परम्परा की वर्तमान काल में उपलब्ध पट्टावलियों में खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगा। प्राचार्य हरिभद्र जैसे उच्च कोटि के विद्वान् प्राचार्य बिना किसी ठोस प्रमाण के इस प्रकार की आधिकारिक भाषा में मार्य श्याम को आर्य सुधर्मा से २३ वां पुरुष कभी न लिखते।
इस प्रश्न पर गहराई से विचार करने के पश्चात् हमें तो इसी निष्कर्ष पर पहँचना पड़ता है कि ग्यारहों गणधरों की वाचकों में गणना करने पर ही मार्य श्याम २३ वें वाचक ठहरते हैं। हरिभद्रसरि को भी सुनिश्चित रूपेण ग्यारहों गणधरों की वाचकों में गणना करना अभीष्ट था, इसी कारण उन्होंने वाचक शब्द की व्याख्या करते हए - "वाचकाः पूर्वविदः" अर्थात पर्वज्ञान के वेत्ताओं को वाचक माना गया है - यह लिखा है। शास्त्रों की वाचना देने का सबसे पहला काम तो वस्तुतः गगधरों का ही था अतः वाचकों में न्यायतः सर्वप्रथम उनकी गणना होनी ही चाहिए। हरिभद्र ने भी गणधरों को वाचक मानकर पार्य श्याम को २३ वां वाचक लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने "इन्द्रभूति गौतमा. दारभ्य" लिखा होगा। किन्तु आर्य सुधर्मा से प्रारम्भ हुई पट्टावलियों को ध्यान में रखते हुए किसी लिपिक ने “इन्द्रभूतिगौतमादारभ्य" - इस पाठ को प्रचलित पट्टपरंपरा के विपरीत समझ, जानबूझ कर उसके स्थान पर - सुधर्मादारभ्य"यह लिख दिया हो। अपनी समझ में लिपिक ने अपने प्रयास को टि-परिहार माना होगा पर ऐसा करते समय लिपिक ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया कि आर्य सुधर्मा से प्रार्य श्यामाचार्य २३वें नहीं अपितु १३वें वाचक ही होते हैं। तथ्यों पर आधारित हमारे इस अनुमान का मूल्यांक चिन्तक इतिहासविदों पर
' हरिभद्रीया प्रज्ञापनावृत्ति, पृ० ५
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