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७१८ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० पौर षट्खण्डागम गणधरों को वाचक मान लिये जाने पर प्रार्य श्याम निश्चित रूप से २३ वें वाचक ही ठहरते हैं । वस्तुतः सभी गणधर वाचक अर्थात् प्रागमों की वाचना देने वाले होते ही हैं प्रतः उनकी वाचकों में गणना करना उचित भी है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है नन्दी सूत्रान्तर्गत पट्टावली की २० वीं और २१ वी गाथा में ११ गरगघरों के नाम देने के पश्चात् गाथा सं० २३ से २६ में सुधर्मा से लेकर मार्य शाण्डिल्य तक वाचनाचार्यों को वंदन किया गया है, इनमें गौतम गणधर से प्रार्य श्याम तक नामों की गणना की जाय तो आर्य श्याम का नाम तेवीसवें स्थान पर ही पाता है।
. इसी प्रकार विचारश्रेणी में भी गणधरों की वाचकों में गणना कर पायं श्याम को २३वां वाचकवर बताते हुए लिखा है :
__ "मयं च प्रज्ञापनोपांगकृत सिद्धान्ते श्रीवीरादन्वेकादशगणभृद्भिः सह प्रयोविंशतितमः पुरुषः श्यामार्य इति व्याख्यातः।"
सिद्धान्त में प्रज्ञापना उपांग के रचनाकार पार्य श्याम को भगवान महावीर के पश्चात्, ग्यारह गणधरों को वाचकों की गणना में सम्मिलित कर तेवीसवां पुरुष बताया गया है' - प्राचार्य मेरुतुंग का यह कथन संभवतः नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली की पोर ही संकेत करता है।'
नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली वीर निर्वाण संवत् १८० में प्रागम-निष्णात एवं एक पूर्वधर प्राचार्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण द्वारा अपने समय में उपलब्ध सभी प्राचीन तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् निर्मित की गई; यह एक ऐतिहासिक तथ्य है । अतः नन्दीसूत्रान्तर्गत पट्टावली की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह का किंचित्मात्र भी अवकाश नहीं रह जाता। यह भी सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वीर नि० सं० ६२३ के पासपास मार्य स्कंदिल और नागार्जुन के तत्वावधान में हुई स्कंदिलीया एवं नागार्जुनीया आगमवाचनाओं में अनेक आगम निष्णात स्थविर श्रमणों ने विचारविमर्श के पश्चात् जिन प्रागमों के पाठों को सुस्थित एवं सुस्थिर किया, उन्हीं मागमों को वीर नि० सं०६८० में देवद्धिक्षमाश्रमरण और कालकाचार्य चतुर्थ के तत्वावधान में वल्लभी में हुई अंतिम आगवाचना में स्कंदिली और नागार्जुनीइन दो भिन्न आगम-वाचनाओं के पाठों का परस्पर मिलान करने के पश्चात् सर्व सम्मत रूप से एक पाठ निर्धारित कर आगमों को पुस्तकारूढ किया गया। वीर
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' जैन साहित्य संशोधक खंड २, अंक ३ में प्रकाशित विचार श्रेणी' पृ० ५ २ (क) जेसि इमो प्रणुप्रोगो;पयरइ प्रज्जावि प्रड्ढभरहम्मि ।
बहुनगरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥३२॥ [नंदी सूत्र पट्टावली] (ख) दुर्भिक्षान्ते च विक्रमार्कस्यैकशताधिक त्रिपंचाशत (६२३) संवत्सरे स्थविररायस्कदिलाचार्यरुत्तरमथुरायां जैन भिक्षुणी संधो मेलितः ।
[हिमवंत स्थाविरावली]
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