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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्रज्ञा० औौर षट्खण्डागम
छोटे बड़े ८६ ग्रन्थों की रचना की। उनका सुविशाल साहित्य ही इस बात का पुष्ट प्रमारण है कि वे प्रवश्यमेव शतजीवी रहे होंगे ।
इन सब तथ्यों पर विचार करने पर हरिभद्र सूरि का जन्मकाल शक सं० ६०० और निधनकाल शक सं० ६६० से ७०० के आसपास का अनुमानित किया जा सकता है |
इस प्रकार 'कुवलयमाला' के उल्लेखानुसार निश्चित रूप से शक सं० ७०० से पहले और अनुमानतः शक सं० ६०० से ७०० तदनुसार विक्रम सं० ७३५. से ८३५ के बीच हुए प्राचार्य हरिभद्र के समक्ष पनवरणा की टीका लिखते समय उपरोक्त दो गाथाएं पन्नवरणा के मूल पाठ में विद्यमान थीं, जिनमें श्रार्य श्यामाचार्य को पन्नवरणासूत्र का प्रणेता बताया गया है । पनवरणा पर टीका की रचना करते समय यदि हरिभद्र सूरी के समक्ष २०० वर्ष पुरानी पनवरणा की प्रतियां भी रही हों तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व भी ये दो गाथाएं पन्नवरणा के मूल पाठ में अन्यकर्तृक गाथाओं के रूप में विद्यमान थीं, जिनमें यह बताया गया है कि प्राचार्य श्यामार्य ने पन्नवरणा सूत्र की रचना की । इन तथ्यों से प्रमाणित होता है कि प्रार्य श्यामाचार्य को पन्नवरगा का रचनाकार सिद्ध करने वाली साक्षी हरिभद्र द्वारा किये गये उल्लेख की दृष्टि से विक्रम सं० ७८५ के आसपास की और उनके समक्ष पन्नवरणा (मूल) की जो प्रति विद्यमान रही, उसकी दृष्टि से विक्रम सं० ५८५ की है ।
प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की, इस प्रकार का उल्लेख मुख्य रूप से प्राचार्य वीर सेन ने षट्खण्डागम की अपनी धवला नामक टीका में और इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में किया है। ये दोनों साक्षियाँ पन्नवरणा सूत्र को आर्य श्यामाचार्य की रचना बताने वाली उपरोक्त प्राचीन साक्षी की तुलना में अर्वाचीन और कम वजनदार हैं। डॉ० हीरालाल ने प्राचार्य वीर सेन का समय शक सं० ७३८ तदनुसार विक्रम सं० ८७३ निश्चित रूप से निरणींत किया है ।" इन्द्रनन्दी का श्रुतावतार भी विक्रम की ११ वीं शताब्दी का रचना मानी गई है ।
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उपर्युक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचार्य श्यामाचार्य का पन्नवरणाकार के रूप में परिचय देने वाली उपरिचर्चित २ गाथाएं प्राज से १४५० से भी अधिक पूर्वकाल से पन्नवरणा सूत्र के मूल पाठ के साथ चली आ रही हैं । धरसेन का षट्खण्डागमकार के रूप में परिचय देने वाला घवला का उल्लेख आज १९५८ वर्ष पहले का होने के कारण पन्नवरणा विषयक उल्लेख से लगभग ३०० वर्ष पीछे का है ।
१ षट्खण्डागम ( जयघवला ) प्रथम खण्ड (द्वितीय संस्करण) की प्रस्तावना, पृ० ३६ २ "जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार ( फतेहचन्द बेलानी), पृ० ११
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