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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ प्रज्ञा० और षट्खण्डागम
नामोल्लेख करने वाले दो प्रमुख विद्वानों में से एक ने पन्नवरणा सूत्र की आदि के मूल मंगलपाठ में हो अपनी ओर से २ गाथाएं देकर इस तथ्य को प्रकट किया है कि पन्नवरणा सूत्र की श्रुतसागर के मन्थन द्वारा तेवीसवें वाचक श्रेष्ठ श्यामाचार्य ने रचना की वहां षट्खण्डागम के रचनाकार का नामोल्लेख करने वाली दोनों ही साक्षियां स्वयं मूल ग्रन्थ की न होकर इतर दो ग्रन्थों की हैं। आज से १३०० वर्ष पूर्व भी प्राचार्य श्यामार्य का पन्नवरणा सूत्रकार के रूप में परिचय देने वाली उपरिलिखित दोनों गाथाएं मूल मंगल पाठ में निहित थीं इस तथ्य की साक्षी विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र सूरि ने पन्नवखासूत्र की स्वरचित वृति में इन गाथाओं को केवल स्थान देकर ही नहीं अपितु इनकी व्याख्या करके दी है ।'
इसमें तो किसी की दो राय नहीं होंगी कि याकिनी महत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र ने पन्नवरणा सूत्र पर टीका की रचना करते समय पन्नवरणासूत्र की उनके समय में उपलब्ध हो सकने वाली प्राचीन से प्राचीनतम प्रतियों को प्राप्त करने का प्रयास किया होगा । श्राज के युग में भी आज से ८००-१०० वर्ष पुरानी आगमों की हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध होती हैं। हरिभद्र सूरि को भी टीका की रचना करते समय आठसौ-नवसौ वर्ष पुरानी न सही कम से कम २०० वर्ष पूर्व लिखी हुई ताड़पत्रीय प्रतियां तो अवश्य मिली होंगी - यह मानने में तो किसी को किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती ।
आचार्य हरिभद्र का समय पुरातत्वाचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी द्वारा अन्तिम रूप से विक्रम सं० ७५७-६२७ निर्णीत किया जा चुका है, जिसे सभी इतिहासज्ञों ने स्वीकार किया है ।
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उद्योतनसूरि पर नाम दाक्षिण्यचिन्ह ने प्राकृत भाषा के अपने उच्चकोटि के ग्रन्थ कुवलयमाला में प्राचार्य हरिभद्रसूरि को इन शब्दों में नमन किया है:जो इच्छइ भवविरहं, भव विरहं को रण वंदए सुयणो । समय-सय-सत्य-गुरुरणो, समरमियंका कहा जस्स ||
[ कुवलय माला, प्रारम्भ ]
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१ प्रस्याश्च गाथायाः " प्रज्झयणमिरणं वित्त" मित्यनया गाथयासहाभिसम्बन्धः । प्रतश्च यं सत्वानुग्रहाय श्रुतसागरादुद्धृता प्रसावप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विधानां नमस्काराहं इत्यतस्तद्विषयमिदमपांतराल एवान्यकत्तुं के गाथाद्वयमिति । "वायगवर: " गाथा, वाचकाः पूर्वविदः वाचकाश्च ते वराश्व वाचकवराः वाचकप्रधाना इत्यर्थः तेषां वंशः प्रवाही वाचकवरवंशस्तस्मिन् त्रयोविंशतितमेन तथा च सुधर्मादारभ्य श्रार्य श्यामस्त्रयोविंशतितम एव, [ हारीभद्रया प्रज्ञापनावृत्ति, पृ० ४-५ ] २ (क) जंन साहित्य संशोधक, भाग १, अंक १, वीर नि० सं० २४४६, पृष्ठ २१ से ५३, (ख) "समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र" (पं० सुखलाल संघवी डी० लिट्) पृ० ८,
3. "विरह" शब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितम् विरहांकत्वात् हरिभद्रसूरेरिति । [जिनेश्वर सूरिकृत 'भ्रष्टम प्रकरण' टीका ].
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